जिस रोज़ से शुरू हुआ,
मानो लग गई हो उसे,
किसी रकीब की बद्दुआ।
वो हर रोज़ कागज़ के पन्नों पर,
जब भी जज़्बात सजोने आता है,
बिखरे हुए शब्दों को देख कर,
नम आंखों से बस लिखता चला जाता है ।
ना मिलती इजाज़त ,
तुमसे खुल कर दिल लगाने की,
ना ही कभी शिद्दत से ,
तुमको कहानियां सुनाने की ।
फिर भी ये मुसाफ़िर,
हर रोज़ तुमसे ही दिल लगाता है,
महफ़िल से गैर मौजूदगी में भी,
सिर्फ तुम्हें ही मौजूद बताता है ।
इश्क़ के किस्सों में,
अब तुम्हारा जिक्र बढ़ने लगा हैं,
मुसाफ़िर भी शायद इस दफा,
ठहर कर इश्क़ में पड़ने लगा है ।
पर क्या तुम लौट कर,
कभी महफ़िल में आओगी,
या फिर हर बार की तरह,
बस रकीब से इश्क़ निभाओगी ।।