मैं हुँ सत्ता की चाभी ,
सर पे जो मुझे चढ़ा लिया ,
मानो सत्ता के मुकाम को ,
पल भर मे पा लिया .
एक रोज अचानक मैं ,
चर्चा मे आ गयी ,
लाखो के सर पे ,
कुछ ही दिनों मे छा गयी .
मैं कभी गुरु के सर पे ,
तो कभी चेले के सर पे आ जाती ,
पर चेले के चाल को ,
कभी नहीं समझ पाती .
चेले ने छीन कर गुरु से ,
मुझे अपना बना लिया ,
साहेब बन बैठा वो मेरा ,
जब ताज की तरह उसने ,
मुझे अपने सर पर लगा लिया .
अब मैं इस सर से , उस सर पर ,
अक्सर चली जाती ,
लेकिन सिर्फ साहेब के इशारो पे ,
एक साथ कई जगहो पर दिख जाती ..
अब जनता दरबार से ,
सत्ता के द्वार तक ,
मैं सब मे ख़ास हो गयी ,
साहेब संग उनकी जनता के ,
सर का ताज हो गयी .
हर रोज कुछ नया लिख कर ,
साहेब संग मुझे ले जाते ,
बिना कुछ कहे खुद से ,
मुझसे जनता तक सन्देश पहुँचाते .
अब जनता को मैं ,इतना भा गयी ,
मुझे हर वक़्त साहेब के संग देख कर ,
वो भी साहेब की ओर खिची आ गयी .
मुझे कभी नहीं छोड़ने की ,
उस रात उन्होने बात कही ,
अगली सुबह मफ़लर के साथ सही ,
पर मैं उनके सर का ताज रही .
एक रोज अचानक ,
साहेब वो मुकाम पा गए ,
जनता का सरदार बन कर ,
हर ओर छा गए .
पर भूल गए उसे ,
जिसे भूल से भी ,
कभी भूल नहीं पाते थे ,
हर वक़्त बड़े शान से ,
सर पर अपने सजाते थे .
मिलते ही सत्ता की चाभी ,
भूल गए ,
कोई हमसफ़र संग उनके था भी .
अब भूल कर कभी कभार ,
मुझे संग ले आते ,
बेवफाई खुद जनता से कर के ,
मुझे गुनेहगार बताते .
साहेब तो बेवफाई ,
उसी रोज ही कर बैठे थे ,
ज़िस रोज गुरु से छीन कर मुझे ,
अपना कर बैठे थे .
अब डर बस इतना लगता है ,
कही मेरे और गुरु जैसे ,
जनता को ना भूल जाए ,
भ्रमित कर के उन्हे भी ,
सत्ता के नशे मे चूर हो जाए .
मेरे ''प्यारे साहेब'' ,
कही फिर से बेवफा ना बन जाए ,
और मुझ जैसे जनता से भी ,
बेवफाई कर जाए ..
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