Tuesday, October 28, 2014

दिल है की मानता नहीं

तेरी मुस्कान से मोहब्बत करू ,
तो तेरी आँखे बुरा मान जाएंगी ,
गाल के तिल पर आजाये दिल अगर ,
तो जुल्फ को आँचल बना वो उन्हे छिपाएंगी .

आज भी सोचता हु ,
तुम हो कौन , और क्यों हम मिले ,
उड़ता हुआ पंक्षी हुआ करता था ,
तेरी खूबसूरती के जाल मे कैसे हम फंसे .

तेरे इंकार को इजहार समझ बैठे ,
सोचा जो था ना कभी ,
वो दिल का हाल कर बैठे .

तेरी पहली झलक जितनी हसीन थी ,
अंदाज़ से तू उतनी ही नमकीन थी ,
चहेरे पर लिए हुस्न का भंडार ,
दिल को कर दिया मेरे तार तार .

घायल तो कर दिया था पहली नजर मे तूने ,
पर फिरसे अब जख्म ताज़ा होने लगे थे ,
जहा उम्मीद कर रहा था जख्मो पर मरहम की ,
वहां तुम अपनी बेरुखी से उन्हे खरोच रहे थे .

सोचता हु कभी कभी ,
तुम तो करीब आने से रही ,
हम खुद ही दूर चले जाते है ,
पर क्या करे इन निगाहो का ,
जो हर किसी मे तेरा ही अक्स पाते है .

...... एक आखिरी तोफा तेरे लिए 
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Monday, September 29, 2014

ये तुम .... कही तुम तो नहीं

तुम जब बड़ी तसल्ली से हमे निहारती हो ,
आंखो से ही जान हम पर वारती हो , 
सोचता हू बस उसी वक़्त , 
दफनाए हुए अरमां को अल्फाज़ो से कह जाऊ , 
तुम तो कह देती हो संगीत बना कर बातो को ,
पर मैं बेसुरा कैसे गा कर हाल ए दिल सुनाऊ .

 यु तो तेरे जाने के बाद ,
तेरी मौजूदगी का आभास हुआ ,
और जब तू लौट कर आई ,
तब आईने संग मेरी निगाहो को ,
तुझसे मोहब्बत का एहसास हुआ .

 तुझे देख कर ही ,
सुबह की शुरुआत होती है ,
तेरी ही मुस्कुराहट से ,
चहरे पर मेरे मुस्कान होती है .

यु तो कभी ऐसा हुआ नहीं ,
तुझ जैसे यहाँ पहले कभी ,
किसी ने भी था ,
दिल को छुआ नहीं .

ये जानते हुए भी ,
तेरी मोह्हबत पर किसी और का राज है ,
दिल हर रोज़ तुझपर आज जाता है ,
और हमेशा की तरह ,
अपनी बातो को कहने से रह जाता है .

तेरा मुस्कुराना , तेरा रूठ जाना ,
आईने से हमसे नजरे मिलाना ,
तो कभी खो कर कही और ,
भूल कर जमाने को हमे देखते रह जाना .

तेरी हर अदा को निगाहो से तो नहीं ,
पर दिल से देख लेता हु ,
चाहत का तो पता नहीं ,
पर हर रोज़ कुछ लम्हों के लिए ही सही ,
तुझसे मोह्हबत कर लेता हु .

ये पता नहीं ,
इस रिश्ते का आगे क्या होगा ,
पर जहा तक बात तेरी मौजूदगी की है ,
मेरे हर लम्हे मे तेरा जिक्र होगा .

सोचने लगी हो अगर तुम ,
ये तुम कही तुम तो नहीं ,
तो फिक्र मत करो ,
अगर नहीं मंजूर मेरी मोहब्बत ,
तो ये तुम , तुम नहीं .


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Wednesday, September 17, 2014

इतेफाक


तेरी अदाओ का कश्मकश ,
तेरी आंखो का जादू ,
हर वक़्त करता था ,
मेरे दिल को जो बेकाबू .

अब ना जाने तुम कहा ,
साथ सबको ले गयी ,
दिल की चाहत तुझे चाहने की ,
अधूरी ही रह गयी .

यु तो दिल तुम ,
तब ही मुझे दे बैठी थी ,
जब देखते ही पहले दफा ,
अपनी मोहब्बत को भुला ,
मुझसे आशिक़ी कर बैठी थी .


पर तब दिल मेरा दगा दे गया ,
समझा नहीं तेरे इशारे को ,
और छोड़ कर बीच मझदार में तुझे ,
किसी और का हो गया .

पर जब लौट दिल मेरा ,
सब लूटा , हार कर ,
तब तेरे दिल ने तुझसे कहा ,
इस दिल से तू मत प्यार कर .

तेरा प्यार तब तेरी ताकत था ,
जीभर करता तुझसे चाहत था ,
पर तोड़ तेरा दिल वो भी चला गया ,
और मैं तेरे बिखरे दिल को जोड़ता रह गया .

यु तो कई दफा ,
दिल से दिल को हमने मिलाया था ,
पर तोड़ कर दिल को ,
कभी तुमने कभी हमने ,
खुद से एक दूसरे को दूर पाया था.

एक दफा फिर दिल तुझसे ,
अब मोहब्बत करने का करता है ,
पर उससे पहले जान ले हम  ,
मुझसे आशिक़ी को दिल तेरा क्या कहता है .

बस करीब हम इतने आ जाये ,
की अब दगा हम दूरियों को दे जाए ,
भूलने से भी ना भूले हम अपनी आशिक़ी को ,
आओ ऐसी मोहब्बत कर जाए ..


अब तुम मेरे और
हम तुम्हारे बन जाए ,
आओ भुला कर हर बातो को ,
दिल मे अब तक दबी बात कह जाए .
आओ अब ऐसी मोह्हबत कर जाए ..

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Thursday, September 11, 2014

कल्पना की कल्पना

सोचा ना था कभी ,
वो फिर लौट कर आएगी ,
जब गुजर रहा है वक़्त तन्हाइयो से भरा ,
तब वो अपनी मौजूदगी से उन्हे मिटाएगी .

यु तो हम आज अनजान से है ,
पर दिल का रिश्ता बहुत पुराना है ,
ख़फ़ा हो कर चली गयी थी उर रोज़ ,
पर दिल आज भी उसका दीवाना है .

वक़्त के कमाल को बस देख रहा हु ,
कल तक जो दूर थी बहुत ,
करीब आने पर उसके ,
ठण्ड पड़ी निगाहों को ,
उसकी खूबसूरती से सेक रहा हु .

तुझ संग अरसो बाद ,
आज हम अलफ़ाज़ सजा रहे थे ,
पर दूर जितने थे तुझसे ,
खुद को तेरे उतना ही करीब पा रहे थे .

तेरी आंखो में जो नशा तब था ,
आज जहर बन जहन मे उतर गया ,
खूबसरती तेरी मुस्कान से जो जुडी थी ,
आज एक बार फिर मेरा  ,
हाल-ए-दिल कह गया .

यु तो तेरे आने से मुझे  ,
डर तेरे फिर से जाने का लग रहा है,
पर लगता है नहीं पड़ेगी जरुरत ,
किसी और फेवीक्विक की अब कभी ,
ऐसा मेरा दिल कह रहा है .

जो मोह्हबत कल थी हमारे दरमियाँ ,
काश वो फिर लौट आये ,
अब हर सुबह तुझसे शुरू हो ,
और हर शाम तुझपे ख़त्म हो जाए .


LOL ;) 



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Saturday, September 6, 2014

सुकून मिला

तेरी आँखों में देखकर उस झलक को ,
लगा जैसे कोई हुस्ने दीदार था ,
देखा था पहली दफा आइने में तुम्हे ,
उस रोज़ ही आइने से कर बैठा प्यार था.

कुछ करीब अब जब हम आ रहे थे ,
निगाहों से निगाहें मिला रहे थे ,
ना तुम कुछ बोली , ना मैं कुछ कह पाया ,
मानो जैसे निगाहों मे वो नहीं था भाया.

यु तो मैं दूर था तुझसे ,
पर ना जाने तुम कैसे करीब ले आई ,
दिल नहीं देता था इजाज़त ,
फिर कैसे मेरी निगाहों मे ,
तूमने अपनी तस्वीर बनाई .

मेरे हर सुर को ,
अब ताल मिलने लगा था ,
मानों लग रहा हो ऐसे ,
जैसे कोई अपना बन रहा था .

तेरी मासूमियत , तेरी हरअदा ,
लगने लगी थी मुझको सबसे जुदा ,
अब मैं तेरे और करीब आने लगा था ,
दिल की बातो को संगीत बना ,
तुझको सुनाने लगा था .

पर तुम कुछ कहती ,
या मैं सुन पाता ,
उससे पहले तुम चली गई ,
और फिर क्या ,
सूने आइने को ,
मेरी नम आँखे देखती रह गई .

बहते आंसुओ के संग  ,
तेरी तस्वीर को भी बहा दिया ,
फिर भी सुकून ना मिला ,
हाल दिल का अब ,
बद से बत्तर था हो चला .

उस रोज़ जब उठा तो ,
लगा सपने मे खोया हु मैं ,
देख कर आइने मे उन निगाहो को ,
एक बार फिर दिल दे बैठा था मैं .

तुम थी कहां ये पता नहीं ,
पर दिल को अब भाने लगी थी ,
दूर थी बहुत मुझसे ,
पर करीब आने लगी थी .

एक बार फिर ,
हम साथ खड़े थे ,
और हमेशा की तरह ,
आइने से निगाहो को देख रहे थे .

तभी आइना मिलते निगाहो को देखमुस्काया ,
और कहने लगा ,
तेरे आने से मुझको ,

सुकून मिला , सुकून मिला .... शशांक विक्रम सिंह 'श्रीनेत'

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Friday, September 5, 2014

गुरु .. मेरे मार्ग दर्शक

माँ को छोड़,
जब पहली दफा स्कूल को आया था,
परायो के बीच,
निस्वार्थ भाव से आप ने ही अपनाया था.

मैं निकल पड़ा था अनजान सफर पर,
ना रास्तो का ज्ञान, ना मंजिल का था पता,
तब आप ने राह दिखाई थी ,
लगने लगे थे रास्ते आसान,
और तब पहली दफा मैंने,
मंजिल को खुद से बेहद करीब पाया था. 

यू तो पापा ने खरीद दी थी कलम,
और माँ ने उसे चलाना सिखाया था,
पर जिस रोज़ जब आप ने,
उन नन्हे हाथो को पकड़ कर,
'' लिखा था,
उस रोज़ ही पहली दफा मै कुछ,
खुद लिख पाया था.


माँ ने भेजा था टिफ़िन बना कर,
पर तब खुद खाना नहीं आया था,
एक बार फिर आप ने मेरे हाथो को,
अपने हाथो का सहारा दे कर,
खाना, खाना सिखलाया था.

जब एक रोज़ चलते चलते,
कदम मेरे लड़खड़ाये थे,
उस रोज़ भी आप के हाथो के सहारे हम,
फिर खड़े हो पाये थे.

उस रोज़ जब गलती कर के,
उसे छिपा रहा था,
तब पहली दफा,
उन हाथो ने गालो को कुछ यू छुआ,
की आंसू, आंखो से गिरने को विवश हुआ.

गिरते आंसुओ की धार देख,
आप जोर से चिलाये,
जिसे देख मैं घबरा गया,
ऐसा लग रहा हो,
जैसे आप नहीं कोई और,
आप के रूप में हो आ गया.

यू तो माँ भी अक्सर गुस्साती थी,
पर रोता देख मुझे
वो भी रोने लग जाती थी,
पर आप का गुस्सा देख,
उन लम्हों मे माँ की बहुत याद आती थी.

मैं समझता नहीं, और आप समझाते,
अक्सर अनजान रास्ते पे चलने को अकेला छोड़ जाते,
पर याद है उन रास्तो की यादे,
जहां भटकते ही रास्ता,
मार्दर्शन के लिए मेरे पीछे आ जाते.

तब तो कभी अच्छा, कभी बुरा लग जाता,
आप मे अपनों से जादे गैर नजर आता,
सोचता क्यों आप वक़्त के साथ बदल गए,
मेरी बातो को क्यों नहीं समझ रहे.


पर आज जब मैं उन रास्तो से,
मंजिल की ओर जा रहा हूं,
आप के ही पदचिन्हो को,
उन राहो पर पा रहा हूं.

एक बात बतानी है आज आप को ..........

आज समझ आया,
जिन रास्तो को अनजान समझ मैं,
जाने से घबराता था,
क्यों भटक जाने पर,
खुद के आस पास आप को पता था.

उन राहो के दोनों ओर,
ढेरोंकंकड़ पत्थर पड़े देख मैं घबरा गया,
उन पत्थरो पर देख,
आप के हाथो के निशा और लहू,
सब समझ आ गया.

जिन राहो पर मंजिल थी मेरी,
उन रास्ते को आपने खुद चलकर,
उन्हे आसान बनाया,
और तो और कभी इसका एहसास भी नहीं था हमको हो पाया.


माँ के तो फटकार मे भी प्यार ढूंढ लेता था,
पर आप को क्यों नहीं समझ पाया,
पूजते तो हम बिन देखे ईश्वर को भी है,
फिर आप को क्यों पूज्य नहीं था हमने बनाया.

आप की महानता अपरम्पार है,
माँ जैसा आपका सच्चा स्नेह और प्यार है,
इंसान के रूप मे ... हे गुरुदेव,
आप ही ईश्वर के सच्चे अवतार है ...

गुरुजनों के चरणों में कोटि- कोटि प्रणाम ...


Happy Teachers’ day J

जिस तरीके से एक कुहार जब माटी का घड़ा बनता है तब उसे बाहर से थपथपाते है और अंदर से सहलाता है , ठीक उसी तरह हमारे गुरुजन भी हमारे साथ उसी तरह का व्यवहार करते है लेकिन जैसे इंसान को कहार का थपथपाना दीखता है , सहलाना नहीं ठीक वैसे ही हमे भी अपने गुरु की मार फटकार तो दिखाई दे जाती है लेकिन उसमे छिपा प्यार नहीं ... मेरी ये कविता संपूर्ण रूप से मेरे गुरुजनो को समर्पित है .. वो तमाम गलतियों के लिए हाथ जोड़ कर छमा चाहता हु और जीवन मे जो भी उपलब्धिया हांसिल की है उनके लिए आप का शुक्रियादा करना चाहता हु ....



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Thursday, August 21, 2014

लफ्ज़ कुछ पिरोये से , और .. तुम

तुझे विरासत में मिली खूबसूरती ,
का आखिर क्या है राज़,
तेरी हर अदा मे ,
छिपा है एक अलग अंदाज़ .

कभी काले , तो कभी सफ़ेद लिबास में ,
क्यों तुम सामने आ जाती ,
दफ़न कर चूका था जिन जज़्बातों को ,
क्यों तुम उन्हे ज़िंदा कर जाती .

कहना तो तब भी था बहुत कुछ ,
जो नहीं कह सका ,
मिले थे हम बस कुछ रोज़ ही ,
पर क्यों हर दिन मेरे ख्यालो मे सालों सा है बसा .

कन्वेंशन सेंटर से जाते वक़्त भी ,
निगाहें तुझे तलाश रही थी ,
पर ना जाने तुम कहा खो गयी ,
तबसे आज तक निगाहे तुमको ,
ढूंढ़ती रह गई .

माना की तुम ने कभी भूल से भी ,
उस को पलट कर नहीं देखा होगा ,
पर हाल क्या कोई जाने उस दिल का ,
जिसने कई बार बहुत कुछ कहने से ,
खुद को रोक होगा .

तेरी वो मासूम सी हंसी ,
चहरे पर हर पल जो रहती थी बसी ,
काले तिल से और हसींन हो जाती ,
निगाहें जो देख लें तुझे ,
तो थमी की थमी रह जाती .

मुझे नहीं पता ,
किस रोज़ , किस पल में ,
मैं इसका कायल हो गया ,
रोज़ रोज़ की मार से ,
दिल मेरा घायल हो गया .

'दग़ाबाज़' है बड़ा वाला वो भी ,
कभी तो चाँद ,
तो कभी ईद का चाँद बन जाता ,
अक्सर अकाउंट डीएक्टिवेट कर ,
कही गायब हो जाता .

तुझे देखते ही ,
कलम खुद बखुद उठ जाती ,
दिल जो कभी तुझसे कह नहीं पाया ,
वो शब्दों में उन्हें पिरो जाती .

.

और फिर क्या ,
हर बार की तरह वो ,
'टेक केयर ऑफ़ योर इमोशन' कहे कर ,
अपनों के संग , आगे बढ़ जाती ... शशांक विक्रम सिंह


ट्रूली मेडली डेडिकेटेड तो यू एंड वैसे भी यू डॉन'ट हैव सिंगल रीज़न तो इग्नोर मी ...
मेरी आखिरी कविता तुझे समर्पित ...

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Thursday, August 7, 2014

चींख

मेरी ये कविता देश के हर उस नारी को समर्पित जिसमे जज़्बा है अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने का ..



मेरी एक चीख से ,
समा सहम गय़ा ,
सितम से ढकी मैं से ,
मेरा मैं भी मुझ से खो गय़ा .


मेरा कसूर सिर्फ मेरी मोहब्बत,
पर क्या सजा सुना दिया,
खेला करती थी जिन हाथो में, 
उन्हीं हाथो ने मुझे जिंदा दफना दिया.


मैं चीखती चिल्लाती ,
झटपटा रही थी, 
हालत ये देखकर मेरी ,
जिन आखों में बसा करती थी मैं ,
वो भी नहीं थी तरस खा रहीं  .


नोच नोच कर मेरे तन को, 
कोई हवस मिटा रहा था, 
तो कोई  मोबाइल मे कैद कर,
दुनिया को दिखा रहा था.


हाथो को चादर बना ,
अपनी इज्जत बचा रही थी ,
भटक कर इधर से उधर ,
अपनों से पराये हो चुके मे ,
अपनों को तलाश रही थी .



जिन गलियो मे खेला करती थी ,
कभी पकड़ कर अपनो के हाथ  ,
आज उन्हीं गलियों में छुड़ा रही थी, 
गैरो से अपना हाथ .



दोड़ते फानते चीखते चिल्लाते ,
घर तो मैं आ गई, 
सहमी सी मै को देखकर ,
मेरे अपनों के चेहरे हॅंसी आ गई .


क्या अपने क्या पराये ,
सब अब ये कहने लगे थे ,
जो हाल मेरा हुआ ,
वो तेरा भी हो जायेगा ,
सोचना भी मत मोहब्बत का ,
वरना वद से वत्तर हो जायेगा .


सहमी मैं एक रोज,
हिम्मत से जा ठहर गई, 
मानो खुद खडे होने का ,
ज्जवा वो पा गई.


लोगो ने दे वास्ता ,
फिर अपना बना लिया,
इज्जत नाम के चादर से ढककर, 
मुझे समझा बुझा दिया.


पर मैं अब कहॉ रूकने वाली थी, 
उतार कर उस चादर को , 
खुद को सामने ला दिया ,
मैं अब हम नहीं होने दूंगी,
वहाँ खडे दरिंदो को बतला दिया .


,उस रोज मैंने ठान लिया ,
अब बस अब और नहीं ,
सामाजिक चादर की आड़ में ,
चलेगा सिर्फ उसका जोर नहीं.


अब मैं, मैं से हम हो गई ,
 भुला कर उन बातों को ,
आगे बड़ गई, 
अब मेरी एक चीख बनकर बुलंद आबाज ,
मुझ जैसे कितने औरो की ,
वो शान बन गई .


सहमी सी वो , अंजान ना रह गई, 


मेरी एक चींख , अब आवाज बन गई।


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Friday, July 25, 2014

साहिल की तलाश

जो कभी था ही नहीं तुम्हारा ,
उसपे हक़ कैसा जाताना ,
टूट कर ख्वाबो के ख्यालो से ,
रूठ मत जाना .

वक़्त भी खूब रंग बदलता है ,
तब समझ आया ,
जब उस रंगीन दुनिया को ,
बेरंग मैंने पाया .

रुठने का सिलसिला अभी जारी है ,
बेवजह हे हो रहा मन भारी है .

चौतरफा घिरा मांझी ,
साहिल तलास रहा है ,
एक पग तल के लिए ,
इधर-उधर भाग रहा है .

चारोँ ओर देख समुंद्र
वो नावो पर घर बना रहा था ,
अपनों के फेके पत्थरों से ही ,
उसे सजा रहा था .

कुछ जख्म ताज़े थे ,
तो कुछ सुख कर निशा छोड़ गए ,
आकर फिर कुछ दुर के अपने ,
उन निशा पर ,
फिर जख्म छोड़ गए .

अब असहज और निराश ,
थकता वो जा रहा था ,
लिए नम आँखे ,
फिर भी वो मुस्कुरा रहा था .

सोचकर उस अपने के वक़्त को ,
वो सहम जा रहा था ,
पाखंडी दुनिया के पाखण्ड को ,
अब कुछ हद तक समझ पा रहा था .

देख समुंद्र के तट को ,
वो खिलखिला गया ,
उम्मीद था जिस मुकाम का ,
उसको वो पा गया .

तोड़ कर पत्थरों से सजे घर को ,
वो बुरे ख़याल मिटा रहा था ,
ताज़ा पड़े जख्मो पर ,
हौसले का मरहम लगा रहा था .

मांझी अब आजाद था ,
मांझी अब आबाद था ,
और तोड़ कर अपनों के फेंके पत्थरों से ,
सजे घर को ,
तट पर उम्मीद का घर बना रहा था .

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