Thursday, August 21, 2014

लफ्ज़ कुछ पिरोये से , और .. तुम

तुझे विरासत में मिली खूबसूरती ,
का आखिर क्या है राज़,
तेरी हर अदा मे ,
छिपा है एक अलग अंदाज़ .

कभी काले , तो कभी सफ़ेद लिबास में ,
क्यों तुम सामने आ जाती ,
दफ़न कर चूका था जिन जज़्बातों को ,
क्यों तुम उन्हे ज़िंदा कर जाती .

कहना तो तब भी था बहुत कुछ ,
जो नहीं कह सका ,
मिले थे हम बस कुछ रोज़ ही ,
पर क्यों हर दिन मेरे ख्यालो मे सालों सा है बसा .

कन्वेंशन सेंटर से जाते वक़्त भी ,
निगाहें तुझे तलाश रही थी ,
पर ना जाने तुम कहा खो गयी ,
तबसे आज तक निगाहे तुमको ,
ढूंढ़ती रह गई .

माना की तुम ने कभी भूल से भी ,
उस को पलट कर नहीं देखा होगा ,
पर हाल क्या कोई जाने उस दिल का ,
जिसने कई बार बहुत कुछ कहने से ,
खुद को रोक होगा .

तेरी वो मासूम सी हंसी ,
चहरे पर हर पल जो रहती थी बसी ,
काले तिल से और हसींन हो जाती ,
निगाहें जो देख लें तुझे ,
तो थमी की थमी रह जाती .

मुझे नहीं पता ,
किस रोज़ , किस पल में ,
मैं इसका कायल हो गया ,
रोज़ रोज़ की मार से ,
दिल मेरा घायल हो गया .

'दग़ाबाज़' है बड़ा वाला वो भी ,
कभी तो चाँद ,
तो कभी ईद का चाँद बन जाता ,
अक्सर अकाउंट डीएक्टिवेट कर ,
कही गायब हो जाता .

तुझे देखते ही ,
कलम खुद बखुद उठ जाती ,
दिल जो कभी तुझसे कह नहीं पाया ,
वो शब्दों में उन्हें पिरो जाती .

.

और फिर क्या ,
हर बार की तरह वो ,
'टेक केयर ऑफ़ योर इमोशन' कहे कर ,
अपनों के संग , आगे बढ़ जाती ... शशांक विक्रम सिंह


ट्रूली मेडली डेडिकेटेड तो यू एंड वैसे भी यू डॉन'ट हैव सिंगल रीज़न तो इग्नोर मी ...
मेरी आखिरी कविता तुझे समर्पित ...

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Thursday, August 7, 2014

चींख

मेरी ये कविता देश के हर उस नारी को समर्पित जिसमे जज़्बा है अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने का ..



मेरी एक चीख से ,
समा सहम गय़ा ,
सितम से ढकी मैं से ,
मेरा मैं भी मुझ से खो गय़ा .


मेरा कसूर सिर्फ मेरी मोहब्बत,
पर क्या सजा सुना दिया,
खेला करती थी जिन हाथो में, 
उन्हीं हाथो ने मुझे जिंदा दफना दिया.


मैं चीखती चिल्लाती ,
झटपटा रही थी, 
हालत ये देखकर मेरी ,
जिन आखों में बसा करती थी मैं ,
वो भी नहीं थी तरस खा रहीं  .


नोच नोच कर मेरे तन को, 
कोई हवस मिटा रहा था, 
तो कोई  मोबाइल मे कैद कर,
दुनिया को दिखा रहा था.


हाथो को चादर बना ,
अपनी इज्जत बचा रही थी ,
भटक कर इधर से उधर ,
अपनों से पराये हो चुके मे ,
अपनों को तलाश रही थी .



जिन गलियो मे खेला करती थी ,
कभी पकड़ कर अपनो के हाथ  ,
आज उन्हीं गलियों में छुड़ा रही थी, 
गैरो से अपना हाथ .



दोड़ते फानते चीखते चिल्लाते ,
घर तो मैं आ गई, 
सहमी सी मै को देखकर ,
मेरे अपनों के चेहरे हॅंसी आ गई .


क्या अपने क्या पराये ,
सब अब ये कहने लगे थे ,
जो हाल मेरा हुआ ,
वो तेरा भी हो जायेगा ,
सोचना भी मत मोहब्बत का ,
वरना वद से वत्तर हो जायेगा .


सहमी मैं एक रोज,
हिम्मत से जा ठहर गई, 
मानो खुद खडे होने का ,
ज्जवा वो पा गई.


लोगो ने दे वास्ता ,
फिर अपना बना लिया,
इज्जत नाम के चादर से ढककर, 
मुझे समझा बुझा दिया.


पर मैं अब कहॉ रूकने वाली थी, 
उतार कर उस चादर को , 
खुद को सामने ला दिया ,
मैं अब हम नहीं होने दूंगी,
वहाँ खडे दरिंदो को बतला दिया .


,उस रोज मैंने ठान लिया ,
अब बस अब और नहीं ,
सामाजिक चादर की आड़ में ,
चलेगा सिर्फ उसका जोर नहीं.


अब मैं, मैं से हम हो गई ,
 भुला कर उन बातों को ,
आगे बड़ गई, 
अब मेरी एक चीख बनकर बुलंद आबाज ,
मुझ जैसे कितने औरो की ,
वो शान बन गई .


सहमी सी वो , अंजान ना रह गई, 


मेरी एक चींख , अब आवाज बन गई।


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