Friday, February 13, 2015

इश्क़-ए-इज़हार

प्रेम दिवस के अवसर पर मेरी ये कविता उन सभी दिले नाचीज़ को सम्पर्पित है .. जिसे आज भी अपनी मोहब्बत को हासिल करने के लिए ख्यालो और ख्वाबो का सहारा लेना पड़ता है ... उम्मीद है मेरे इस कविता रूपी समर्पण को आप स्वीकार करेंगे ...

यु ना बजती घंटी जो ,
उस रोज किसी यार की ,
दिल दे बैठा होता उसको ,
जो किसी और की ''इश्क़-ए-इज़हार'' थी .

पहली दफा जो देखा उसे ,
तो बीत चुके थे वर्षो ,
पर कमबख्त वक़्त ने किया इशारा ,
अरमानो संग अभी और तरसो .


मैंने जो पूछा उससे ,
उसके दिल का हाल ,
कह गई मुस्कुरा के मुझसे वो ,
मेरा दिल तो किसी और ने रखा है संभाल .

सुनते जिसे दिल मेरा टूटने को आया ,
कोसने लगा मुझको ,
उस रोज क्यों था तूने ,
उसका फ़ोन उठाया .

होंठो पर लाकर झुठी हंसी ,
दिल मे उठे दर्द को दफना गया ,
इस जन्म मे ना सही ,
अगले जन्म वाला फार्मूला याद आ गया .

अगली ही मुलाकात मे ,
हाथो मे लेकर उसका हाथ ,
अपने और करीब लाया ,
कह गया वो मैं ,
जो अब तक था दिल कह नहीं पाया .

सुन कर मेरी बात को ,
वो झट से मुस्कुराई ,
कहनी लगी पागल ,
ले छीन उससे दिल अपना ,
इसी जन्म मे मैं तेरे लिए लाई .

जिसकी बातो से , आँखों से , आवाज़ से  , अदा से ,
करने लगा था मोहब्बत ,
आखिरकार वो मेरे खातिर दिल अपना छीन लाई ,
लगा जैसे मिल गया था सब कुछ ,
तभी माँ जोर से चिल्लाई ,
उठो नालायक .... सुबह होने को आई .

हाय रे ये तन्हाई ,
होश मे तो वो रहती ही थी ,
ख्वाबो मे भी उसको ,
अपने संग ले आई ...

हाय रे ये तन्हाई ,
हाय रे ये तन्हाई ....

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