Thursday, December 24, 2015

मेहँदी

अब अक्सर जब निहारता हु ,
कल को ,
तू याद आती है ,
ना कोई सवाल , ना कोई जवाब ,
बस हाथो पर सजी मेहँदी नजर आती है .

यु चल रहे सिलसिले को ,
ना जाने वो क्यों तोड़ गए ,
एक दफा पूछा भी नहीं हमसे ,
बिन कुछ कहे मुह मोड़ गए .

उस रोज़ खुलते ही आँख ,
तेरी हाथो पर रंगी मेहँदी नजर आई ,
मानो ख्वाबो मे से ,
मेरे पीछे पीछे थी तू चली आई .

खुश हुआ ये जान कर ,
बिना कुछ मांगे पहली बार मिला था ,
पर क्या पता था ,
बस वही आखरी बार तेरे जहन मे ,
हमारा ज़िक्र हुआ था .

कभी रुखसाना बन हमे जलाती ,
कभी बड़ी बड़ी बातो से अपना बनाती ,
हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते ,
झेलना जब उन्हे तक़दीर मे लिखा था ,
हम कैसे तक़दीर के खिलाफ जा पाते  .

चल पड़ा था ये सिलसिला ,
कई दफा टूटने के बाद ,
जानने लगे थे तुझको कुछ हद तक ,
बहुत कोशिशो के बाद .

नहीं पता वजह क्या है ,
और अब जानना भी नहीं ,
तू जो गयी दूर ,
जरूर होगी तू मजबूर .

वरना कल तक साथ निभाने वाले ,
आज यु दूर ना जाते ,
तोड़ कर अपने दिल को ,
हमे ना कुछ बताते .

एक दफा पूछ लिया होता मुझसे ,
जो थी अगर कोई बात ,
बिना कुछ कहे ,
क्यों छोड़ गयी तू मेरा साथ .

मेहँदी लगे हाथो पर तेरे ,
कदम चूमे तेरे खुशिया हज़ार ,
वादा है मेरा , जो बस चला दिल पर ,
अपने नाम की मेहँदी तेरे हाथो पर ,
ये ख्यालो मे भी ना सोचेंगे यार .

तेरी मेहँदी एक पहेली है ,
जानता हु तू आज बहुत अकेली है ,
पर हम क्या कर पाएंगे ,
जब आप यु ही हमे हर दफा अधूरे मे ,
अपनी हाथो पर सजी मेहंदी के यादो संग ,
छोड़ जाएंगे .

माँ ... माँ होती है

मैं आई थी जब कोख मे ,
माँ ने नहीं बताया , 
बेटी हु जान कर उसने , 
सबसे था मेरा राज़ छिपाया . 

मैं आई जब इस जग मे , 
पापा संग सबकी चहेती हो गयी , 
माँ के भी हिस्से का प्यार , 
माँ से मैं छीन ले गयी . 

हर रोज़ मेरे नींद से वो जग जाती , 
ख्वाबो मे धकेल कर मुझे ,
तब कही जाकर वो सो पाती . 

एक दफा मैं चोट खा कर घर आई ,
देख जिसे माँ की आँखे भर आई , 
मैं कुछ कहती उससे पहले ही बाहों मे समेट , 
पूछने लगी ये चोट कहा से लाइ . 

माँ ने चोट की जोर से फटकार लगाई , 
कहा अब फिर कभी मेरी बेटी के पास ना आना , 
देख उसके इस अंदाज़ को , 
मैं जोर जोर से खिलखिलाई . 

वक़्त का पहिया चल पड़ा था ,
माँ से बिछड़ने का वक़्त निकल रहा था ।

मेरी भी कोख मे एक , 
नन्ही जान आ रही थी , 
माँ के पास हो कर भी , 
मैं उससे दूर जा रही थी . 

एक रोज़ वक़्त ने क्या खेल खेला , 
देख जिसे मैं दंग रह गयी ,
माँ माँ होती है , 
उस रोज़ ये बात समझ आयी , 
जिस रोज़ बेटी कीं ख़ातिर ,
मैं माँ को आख़िरी वक़्त मे छोड़ आयीं .