Thursday, December 28, 2017

हाय रे हया

कुछ क़दम अभी बस मैं चली थी ,
रोशनी सी आँखो में पड़ी थी ,
देखने को मुझे इस दफ़ा ,
कुछ जादे लोगों में होड़ लगी थी ।

कुछ आवाज़ दे रहे थे ,
कुछ तस्वीर ले रहें थे,
मैं कुछ समझ नहीं पाई ,
तभी ‘ग़ौर से देखिए ‘ ऐसी एक आवाज़ आई ।

हया जो अब तक चादर में ढकी थी ,
घबरा कर वो अब ठिठुर रही थी ,
सहमी ही वो एक दफ़ा फिर ,
किसी कोने में जा वो पड़ी थी ।

कुछ देर बाद जब ,
टीवी में ख़ुद को पाया ,
थे ये भी हया के दरिंदे ,
तब समझ आया ।

अब तक जो सिर्फ़ कुछ जान रहें थे ,
अब हर आँखे मुझे पहचान रही थी ,
बस मैं ही अपनी इस पहचान से ,
अनजान खड़ी थी ।

किसी ने मेरे आबरू को छेड़ा था ,
किसी ने उसे दुनिया में बिखेरा था ,
किसे गुनहगार बताऊँ ,
हर क़दम पर बन चुकी पहचान को ,
कैसे मैं अपनाऊँ ।।

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