Wednesday, December 31, 2025

बेखबर

कैद जिसकी ख्वाइशें,
वो कैसे आज़ाद रहेगा,
बिना मिले खुद से,
वो कैसे खुद से सच कहेगा ।

उलझन जिसको जीने में,
वो भला जिंदगी कैसे देगा,
खामोशी को पढ़ने वाला,
किसी रोज़ उसे भी पढ़ लेगा।

तस्वीरों से भला,
क्या खूब किस्से वो बनाता हैं,
हर दर्द छिपा कर,
बस खुद को कैद कर जाता है।

पर कब तक ये सिलसिला,
गुमनाम बन कर फिरता रहेगा,
क्या कभी ठहर कर,
खुद से कुछ कह सकेगा ।

गर नहीं कहा किसी से,
कोई भला उससे क्या कहेगा,
शायद वो भी उस जैसा,
खुद में उलझा रहेगा ।

खत्म कर के खामोशी,
एक बार शोर मचाते जाना,
शायद मिल जाए वो जवाब,
जिससे अब तक था वो अनजाना !