Sunday, June 9, 2024

उलझन

अनगिनत जज्बातों के संग,
देखो कैसे वो उलझी पड़ी रही,
होठों पर रख कर झूठी मुस्कान,
अंदर से बस रोती रही ।

ना पूछता कोई हाल उसका,
ना वो किसी को बता पाती,
इश्क़ के अनगिनत धब्बों को,
वो खूबसूरत निशा बताती ।

मिले मुसाफ़िर राहों में जो,
वो उसकी मंजिल भटकता रहें,
अपने मंजिल को बता कर दुनिया,
उसकी दुनिया को झुठलाते रहें।

हर जख्म के भरने से पहले,
कोई नया ज़ख्म दे जाता रहा,
कर के वादा इश्क़ का उससे,
बेवफाई निभाता रहा ।

सब कुछ लुटा कर आज वो,
देखो कैसे बेसुध खड़ी हैं,
फिर किसी मुसाफ़िर के खातिर,
गुमनाम रास्तों पर बढ़ रही हैं ।

सिलसिला तलाश का,
तब तक ख़त्म नहीं होगा,
उलझे जज्बातों में जब तक,
सुलझा "इश्क़" नहीं होगा ।।

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