Wednesday, April 29, 2015

मरा नहीं , आवाज़ बना हु

Sarकार बनता हु ,

उम्मीद भरी नजरो से टक-टकी लगता हु ,

पर साल दर साल सरकार बदल जाते ,

हम जस के तस उन्हे देखते रह जाते .


क्या फर्क पड़ा लोगो को ,

जो देख मुझे लटके ,

थोड़ा भी ना घबराये ,

सोचा था शायद सरकार बचा लेंगे मुझे ,

पर मेरे मरने तक वो माइक भी ना पकड़ पाये .


एक वक़्त हुआ करता था ,

जब सरकार खम्बों पर चढ़ जाते ,

पर हाय रे राजीनीति ,

देख कैसा हुआ तेरा असर ,

मानस को भी लटके देख ,

वो ख़ामोशी के पल्लू मे छिप जाते .


मैं मौत मरा गरीबी की ,

पर वो क्यों मुझे बचाते ,

मैं बच जाता ,

तो वो घड़ियाली आंसू कैसे बहाते .


मैं बड़ी उम्मीदो से उनके कहने पर आया था ,

पर हुआ हैरान देख कर बदले रंग उनके ,

जब सरकार ने मेरे अपनों पर ही ,

मुझे बेघर करने का आरोप लगाया था .


एक ओर मौसम की मार पड़ी थी ,

खेतो मे लक्ष्मी लाचार पड़ी थी ,

तो वही साहेब के खातिर ,

सरकार हमे ग्राहक बनाने को बेक़रार खड़ी थी .


मैं मरा या मारा गया ,

सोच कर ये ,

खुद को ठगा पता हु ,

कही कोई और ना ठगा जाए ,

मुझ जैसा ,

सोच यही घबराता हु .


मेरी मौत का फैसला सही था या गलत ,

आप ही बताये ,

क्या अब जागेगा किसान , 

या फिर ठगा जाएगा ,

सोच यही मन घबराये .


मैं मरा नहीं , आवाज़ बना हु ,

चिंगारियों से मिल कर आग बना हु ...

जलाये रखियेगा इस आग को ... शायद समां इससे ही रोशन हो जाए 


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