Sarकार बनता हु ,
उम्मीद भरी नजरो से टक-टकी लगता हु ,
पर साल दर साल सरकार बदल जाते ,
हम जस के तस उन्हे देखते रह जाते .
क्या फर्क पड़ा लोगो को ,
जो देख मुझे लटके ,
थोड़ा भी ना घबराये ,
सोचा था शायद सरकार बचा लेंगे मुझे ,
पर मेरे मरने तक वो माइक भी ना पकड़ पाये .
एक वक़्त हुआ करता था ,
जब सरकार खम्बों पर चढ़ जाते ,
पर हाय रे राजीनीति ,
देख कैसा हुआ तेरा असर ,
मानस को भी लटके देख ,
वो ख़ामोशी के पल्लू मे छिप जाते .
मैं मौत मरा गरीबी की ,
पर वो क्यों मुझे बचाते ,
मैं बच जाता ,
तो वो घड़ियाली आंसू कैसे बहाते .
मैं बड़ी उम्मीदो से उनके कहने पर आया था ,
पर हुआ हैरान देख कर बदले रंग उनके ,
जब सरकार ने मेरे अपनों पर ही ,
मुझे बेघर करने का आरोप लगाया था .
एक ओर मौसम की मार पड़ी थी ,
खेतो मे लक्ष्मी लाचार पड़ी थी ,
तो वही साहेब के खातिर ,
सरकार हमे ग्राहक बनाने को बेक़रार खड़ी थी .
मैं मरा या मारा गया ,
सोच कर ये ,
खुद को ठगा पता हु ,
कही कोई और ना ठगा जाए ,
मुझ जैसा ,
सोच यही घबराता हु .
मेरी मौत का फैसला सही था या गलत ,
आप ही बताये ,
क्या अब जागेगा किसान ,
या फिर ठगा जाएगा ,
सोच यही मन घबराये .
मैं मरा नहीं , आवाज़ बना हु ,
चिंगारियों से मिल कर आग बना हु ...
जलाये रखियेगा इस आग को ... शायद समां इससे ही रोशन हो जाए
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