Saturday, February 24, 2024

फरेबी इश्क़

क्यों झूठे ख्वाबों से तुम,
इश्क़ की बुनियाद बिछाते हो,
आहिस्ता आहिस्ता मरहम बन कर,
झख्मों को नासूर बनाते हो ।

क्या इल्म नहीं तुमको,
उसकी बर्बादी के किस्सों का,
सब कुछ लुट चुका हो,
जिसके हर हिस्से का ।

बेखबर आज भी मनसूबों से,
वो तुमको अपना बता रही हैं,
ज़हर को समझ कर अमृत,
हर रोज़ पीएं जा रही है ।

बिखरने की आदत हो जिसे,
भला उसे जोड़ कर क्या मिलेगा,
बेहतर की ख्वाइश में,
आख़िर में बत्तर ही मिलेगा ।

नक़ाब उतार कर ख्वाबों का,
उसको सच से मिल आने दो,
जीते जीते मरी हैं कई दफा,
इस दफा मर कर जी जाने दो ।

मनसूबे जब मालूम नहीं ,
तो मंज़िल का पता कैसे बताओगे ,
बन कर आइना तुम भी,
सिर्फ़ दाग ही देख पाओगे ।

जज़्बात और हालात,
सब अभी काफ़ी विपरीत हैं,
हिस्से उसके तुम आज,
कल किसी और की रीत है ।

अकेलापन देखो अब उसका,
उसे कितना सता रहा है,
हर एक अजनबी में उसको,
अपना आशिक़ नज़र आ रहा है ।।