जो ना मिली होती दो गज़ ज़मीन ,
और मिट्टी की चादर ,
कही होते पड़े लावारिस ,
लिये जिस्म पर ज़ख़्मों के सागर ।
ना आया था कोई पहले मिलने ,
मेरे मिट्टी के ऊपर वाले कब्र में ,
था पड़ा सुनसान वो भी ,
ज़िंदा लाश के मरने के सब्र में ।
थी जान बाक़ी कुछ ,
और उम्मीद तेरे लौट आने की ,
अनगिनत दिये अंजाने ज़ख़्मों पर ,
मरहम लगाने की ।
ख़ैर मौत से पहले कब्र पर ,
कौन ही है आता ,
ज़िंदा पड़े अनगिनत क़ब्रों में ,
लाशों से कौन ही दिल लगाता ।
आज वो बैठी है मेरे कब्र के पास ,
भीगी पलकें और थोड़ी उदास ,
फेर रही वो ऊँगलियाँ कब्र पर ,
और फ़ुल के मरहम लगा रही ।
उसके इस अंजाने अन्दाज़ से ,
मानो ज़िंदा होने का दिल करता है ,
क्यूँ अक्सर ज़िंदा रहने पर ,
इतना प्यार नहीं मिलता है ।
अब मेरी रूह भी तुझ जैसे ,
किसी और जिस्म की जान हो गई ,
मेरे इस जिस्म से ,
वो भी अनजान हो गई ।
मेरी कब्र पर लौट कर फिर आना कभी ,
सिर रख कर सो जाना कभी ,
होगा मालूम शोर धड़कनो का ,
गर उन्हें सुन पाना कभी ।।