Sunday, February 2, 2020

कच्चे मकान

होते थे घर पक्के,
कच्चे मकान हुआ करते थे ,
उलझते थे इंसान ,
फिर भी साथ रहा करते थे ।

वक़्त था एक वो भी ,
जब घर में होते थे आँगन ,
खेला जहाँ सब करते थे ,
अक्सर लोग जहा लड़ते थे ।

ना कुछ तेरा , ना मेरा ,
सब सबका हुआ करता था ,
एक वृक्ष की छाओ में ,
पूरा घर रहा करता था ।

कपड़े बाँटे तब भी थे जाते ,
चाचा के कपड़े भैया ,
भैया के कपड़े हम ,
पहन बेहद ख़ुश हो जाते ।

नमक रोटी का स्वाद ,
और उस चूल्हे की ख़ुशबू ,
ना जाने कहाँ खो गई ,
वो बंद मकानों में ... शायद हो गई ।

ना थे दरवाज़े , ना थी दूरियाँ ,
सब था तेरा , सब था मेरा ,
पर वक़्त कैसे बदल गया ,
जबसे मकान तेरा और मेरा हो गया ।

चंद लोगों के साथ घर कैसे हम बनायेंगे ,
जाते वक़्त दुनिया से वो चार कंधे कैसे लायेंगे ,
क्यूँ नहीं तोड़कर मकान आओ घर बनाते है ,
ख़ातिर ख़ुशियों के अपनो के ,
लोगों से घर सजाते है !!

आओ तोड़ कर मकान ,
घर बनाते है ।