Wednesday, June 26, 2019

तितली

हल्की हल्की बारिश की बूँद ,
और होता सवेरा ,
बादलों से घिरा असमां ,
ढूँढ रही थी वो अपना बसेरा ।

रंग बिरंगे रंगो से सजी ,
सूरज की किरणो से चमक रही थी ,
पत्तों से छलक कर बूँद बारिश की ,
उस पर जब पड़ रही थी ।

मदमस्त वो कभी इस डाली ,
कभी उस पेड़ पर छिप जा रही थी ,
कभी उड़ खुले आसमा मे ,
शमा को ख़ूबसूरत बना रही थी ।

सर्द होते मौसम में ,
वो एक गर्म सा एहसास थी ,
अंधेरे में जगमगाता दीया ,
ऐसा वो विश्वास थी ।

एक ज़ोर का तूफ़ान आया ,
देख जिसे मैं घबराया ,
पर वो ना रुकने को तैयार थी ,
उड़ने को फिर से बेक़रार थी ।

मन भी तितली सा लगता है ,
लिये रंग हज़ारों चमकता है ,
कभी इस डाल कभी उस पेड़ ,
बस उड़ता चला जाता है ।

क्यू ना दिल को भी ,
तितली बनाये ,
रंगबिरंगे उम्मीदों के संग ,
पंख लगा कर जो उड़ जाये ।।

Monday, June 24, 2019

सिलसिला

 पहली नज़र ..पहली मुलाक़ात ,
होने लगी थी जबसे बात ,
ना वो कुछ कहते , ना हम सुनाते ,
ख़ामोश रह कर आँखों से सब कह जाते ।

हुआ शुरू जो था सिलसिला ये ,
अब हर रोज़ चलने लगा था ,
कल तक निगाहो को मिलाने वालों का ,
अब दिल भी मिलने लगा था ।

बड़ी ठंडक और सुकून देते थे पल वो ,
जब कभी वो मेरे क़रीब आ जाते ,
समेटे पहाड़ों से ऊँचे अल्फ़ाज़ ,
ना जाने कहा छिप जाते ।

हर रोज़ जब भी देखता उसे मुस्कुराते ,
गालों पे बन कोहिनूर डिम्पल बन आते ,
देख अदा जिसकी ख़ूबसूरत ,
बस आँखों से ही हम इश्क़ में डूब जाते ।

जो सिलसिला आँखों से शुरू हुआ ,
ना जाने कहाँ ख़त्म होगा ,
नहीं फ़ुर्सत उन्हें सुनने की मुझे ,
इस सिलसिला का क्या हश्र होगा ।


अब भी होती है बातें निगाहों से अक्सर ,
पर अब हम नज़रें उनसे चुराते ,
कमबख़्त कौन रोके इस चालू दिल को ,
एक दफ़ा फिर आइये सिलसिला चलाते ..

आइये एक दफ़ा फिर नज़रें मिलाते ,
आइये एक दफ़ा फिर उनमें खो जाते ।।

Saturday, June 8, 2019

बस ... और नहीं

रात के अंधेरे में ,
सब जगमगा रहे थे ,
सुनसान से होते रास्तों पर ,
जब हम चलने को आ रहे थे ।

रुक .. थाम कर उम्मीद लिये ,
हम एक जगह ठहर गये ,
आई पुकार कर मंज़िल की बस ,
जिस पर हम चढ़ लिये ।

थे और भी साथ मेरे , मुझ जैसे ,
लगा नहीं कुछ अलग वैसे ,
पर तभी एक भेड़िया पास आया ,
देख जिसे मन घबराया ।

सुकून के नींद में ,
जब सब सो रहे थे,
उस वक़्त हम इज़्ज़त की भीख माँग ,
बहुत रो रहे थे ।

छुआ जैसे उसने मुझे समझ कोई खिलौना ,
मैं ज़ोर से थी चिल्लाई ,
पर उस घनी रात और सुनसान रास्तों पर ,
मेरी आवाज़ नहीं थी कही पहुँच पाई ।

जिस्म को मेरे नोच दरिंदो ने ,
अपनी हवस की भूख थी मिटाई ,
ज़िंदा लाश बन कर पड़ी थी मैं ,
फिर भी उन्हें रहम ना आई ।

चंद लम्हों में मैं इस दुनिया से चली गई ,
सवाल बहुत पीछे छोड़ गई ,
शायद अब कुछ बदल जाये ।

शायद ...अब बस और नहीं ,
किसी की इज़्ज़त कोई नीलाम कर पाये ,
शायद मेरा दर्द इतिहास बन जाये ,
शायद अब देश बदल जाये ।।

बस और नहीं ..!!