एक रिश्ता है अल्फाज़ का ,
उलझी जिसकी पहेली हैं,
दुनिया से बिलकुल परे ,
वो किसी खिड़की पे खड़ी अकेली है ।
बारिश की हर बूंद जिसके ,
मन को भीगा रही हैं,
लौट कर फिर से वो ,
अल्फाज़ में उलझी जा रही है ।
कल्पना के इस सफ़र में ,
गर कोई उसका साथी हैं,
महज मौजूदगी ही जिनकी ,
दोनों के लिए काफी है ।
अल्फाज़ के लिए वो पहेली ,
पहेली के लिए उसके अल्फाज़ हैं ,
क्या खूब छिपा लेते दोनों ,
एक दूसरे के जज़्बात हैं ।
है बहुत कुछ आज भी अधूरा ,
वक्त जो पूरा कर जाएगा ,
खोल कर दरवाज़ा जब कभी ,
वो दिल में उतर जाएगा ।
खोल कर दरवाजा ,
पहेली आज पहले ही खड़ी हैं ,
ना कोई हलचल ना हड़बड़ी ,
वो बिल्कुल खामोश पड़ी है ।।