माथे से उसने बिंदी नहीं ,
मेरे इश्क़ को हटाया था ,
मिलने जब उससे उसका ,
कोई मीत आया था ।
रूठने पर मनाने का सिलसिला ,
आज मैंने फिर शुरू किया था ,
मान कर जेहनसीब जिसे ,
उसके हिस्से अपना वक्त किया था ।
दिल जो पहले जिससे लगा था ,
वो आज अजनबी सा लग रहा था ,
मेरे इज़हार करने पर पहली दफा ,
वो अपनी नज़रे फेर रहा था ।
मुकम्मल हो इश्क़ उसका ,
लिखा जो हो उसके नसीब में ,
रकीब नहीं बनना मुझे ,
किसी दिलजले के इश्क़ में ।
हारना लाज़मी होता है इश्क़ में ,
किसी को जिताने के लिए ,
एक तरफा मोहब्बत को ,
इस कदर निभाने के लिए ।
मिलेगा कोई एक रोज़ मुझे ,
जो मुझसे भी इश्क़ निभायेगा ,
मेरे नाम की बिंदी से ,
खुद को सजाएगा ।।