Friday, May 29, 2020

नींद

प्रिय नींद ,
मेरी पहली मोहब्बत हो तुम ,
जो अक्सर दूसरी मोहब्बत के आते ही ,
कहीं खो जाती हो ।

अक्सर रातों को तुमसे लड़कर ,
कहीं तुम तक पहुँच पाते है ,
कभी आ जाती हो वक़्त पर ,
कभी हम बुलाते है ।

आज तो मानो रुठ कर बैठ गई हो ,
कुछ इस क़दर ,
बेख़बर है हम वजह से ,
और हो रही , हर कोशिश , बेअसर ।

ना दूसरी मोहब्बत ने आज दस्तक दी ,
ना ही दी किसी ने दग़ा ,
बेवजह क्यूँ ग़ायब हो आज ,
कोई तो बताये वजह ।

उड़ी उड़ी सी तुम कही ,
बतला दो अपना पता ,
कोई तो ले उड़ा है ,
मेरी पहली मोहब्बत बेवजह ।

अब और नहीं होता इंतज़ार ,
मिलने को तुझसे आँखें बेक़रार ,
दिल भी धड़कना छोड़ रहा है ,
ख़ामोशी की चादर वो ओढ़ रहा है ।

लौट आओ वक़्त से ,
कही देर ना हो जाये ,
पहली मोहब्बत अंजाने में ,
मौत ना बन जाये ।

आओ फिरसे तेरी दुनिया में ,
हम लौट जाते है ,
पहली मोहब्बत में डुब कर ,
ख़्वाबों से मिल आते है ।। 

Monday, May 25, 2020

ग़ुरूर

मुझे तुझसे इश्क़ का ग़ुरूर ,
तुझे उसमें खोने का सुरुर ,
मुझे तेरी यादों का सहारा ,
तुझे उसके लम्हों ने वारा ।

मैं उठ कर आज भी देखता तुझको ,
और तु भी उसे निहारती है ,
मैं ज़िंदा हु ख़ातिर तेरे ,
और तु उसपर जान वारती है ।

होती है बाँहों में अक्सर मेरे ,
बन कर तु एहसास ,
रहती है तु साथ उसके ,
हर दिन और रात ।

मेरे हर ज़िक्र में मौजूद तु ,
और तेरी ही बातें ,
चाँद से जा पुछ आ कभी ,
अभी कितनी और रातें ।

है ग़ुरूर जितना तुझमें ,
उसे पाने का ,
शायद उतना ही है मुझे ,
तुझमें खो जाने का ।

ग़ुरूर मिट भी जाये तो सही ,
मोहब्बत के रंग कैसे मिटाओगी ,
हर वो निशा जो मेरी मौजूदगी बताते है ,
कब तक उन्हें छिपाओगी ।

सूखे पत्ते

मेरी यादों के बाग़ीचे में ,
कुछ पत्ते सुख कर गिर पड़े थे ,
कुचलने को जिसे राहगिर दिल के ,
पग पग पर खड़े थे ।

मौसम के बदलने से ,
सूरज के ढलने से ,
शाम के आने से ,
चाँद के जाने से ।

अब तक संभालें बिखेर पत्तों को ,
ख़ामोशी से उन्ही के पास खड़ा था ,
राहगिर को रोकने की ख़ातिर ,
ख़ुद को ज़ख़्मों से भर चुका था ।

दिल में ज़ख़्मों से अब ,
घाव गहरे होने लगे ,
तेरा ज़ख़्म टूटने का क्या कम था ?,
एक और घाव हम सहने लगे ।

तूने माना नहीं हमें कभी अपना ,
और ग़ैर तुझे जलाने लगे ,
टूट कर मुझसे जिस पल ,
तुम दूर जाने लगे ।

कौन कहता है पत्तों के बग़ैर ,
पेड़ पनप पाता है ,
पत्तों से उसकी मोहब्बत ऐसी ,
वो छांव और सुकून छोड़ जाता है ।

हज़ारों है पेड़ मुझ जैसे ,
और लाखों पत्ते ,
टूट कर बिखर जाते बहुत ,
कुछ झूठे कुछ सच्चे ।। 

Wednesday, May 13, 2020

मुआवज़ा

मेरी ज़िंदगी को मौत बना कर ,
दाम लागते है मालिक ,
छुप छुप कर जीते आये की ,
खुल कर मौत दिखाते है मालिक ।

कभी ख़बरों को पढ़ने वाले को ,
ख़बर बनाते है मालिक ,
मुझ जैसे अनपढ़ के मरने पर ,
काग़ज़ लिखवाते है मालिक ।

हे मालिक , ख़ुशिया और ग़म ,
मालूम नहीं कौन रहता है साथ कम ,
फिर भी अनजान से रिश्ता आप बनाते है ,
बिन बुलाये मेहमान बन कर आ जाते है ।

मेरी सूरत जिससे मैं होता ख़ुद अनजान ,
पहचान लेते अक्सर वो शैतान ,
ख़ाक में मिला कर मुझे ,
दे देते मेरे मौत का मुझे ईनाम ।

मौत के इंतज़ार में बैठें रहते मालिक ,
गिद्ध बन नोचने को लाश ,
ले आते मेरा ही ख़ज़ाना लुट कर ,
मेरे मौत के बाद ।

क्यूँ नहीं कभी ज़िंदा को देते ज़िंदगी ,
या किसी उलझन में उसका साथ ,
हर बार सोच कर मसीहा ,
चुन लाते मालिक हम ,
बेचने ख़ुद की लाश ।

मालूम नहीं मालिक कभी ,
क्यूँ ख़ुद मुआवज़ा नहीं पाते ,
बन कर गिद्ध नोचने ,
मेरी ही लाश पर आते ।

ए मालिक ,
मुआवज़ा का दौर गर जाये थम ,
यक़ीनन मरेंगे कम ,
ज़िंदा रहेंगे हम , ज़िंदा रहेंगे हम ।।

Sunday, May 3, 2020

थप्पड़

फेरते उँगलियाँ गालों पर उसके ,
अनगिनत दफ़ा रहे होंगे ,
छुपे जज़्बात दिल के अक्सर ,
इस अदायगी से वो बयां करते होंगे ।

सुबह के शोर से पहले की ख़ामोशी ,
या रात के सन्नाटे का शोर ,
बन बैठी है ये उँगलियाँ .. क़सूरवार ,
आज कल ना जाने क्यूँ हर ओर ।

आज भी छुआ था गालों को उसके ,
उँगलियों ने थोड़ी ज़ोर से,
थे निशाँ ज़ख़्म के इस दफ़ा ,
लिये ख़ामोशी चारों ओर थे ।

जो लगते थे गले अक्सर ,
इस अदायगी के बाद ,
जाने लगे ख़ामोशी से दूर ,
दफ़नायें टूटे दिल के साथ ।

ना माँगा कभी मोहब्बत से अधिक ,
ना कभी चाहा किसी और को ,
छोड़ आई आज गलियाँ वो ,
संग उसे , उसके हाल छोड़ कर ।

कई दफ़ा एक लम्हे में ,
सब बिखर जाता है ,
अंदाज़े मोहब्बत में “ज़ुल्म” ,
कहाँ जगह पाता है ।

हाँ अक्सर हम ख़ुद को समझाने में ,
अपना दुःख सुनाने में ,
उसकी बात सुनना भुल जाते है ,
अनगिनत दफ़ा ऐसा ज़ुल्म कर जाते है ।

बेशक थोड़ा ही शोर रहाँ हो ,
उँगलियों का गालों पर उस रोज़ ,
पर ज़ख़्म पुराना सा लगता है ,
ये “थप्पड़” बहाना सा लगता है ।