उँगलियो को ख़ून में ,
सान कर शान से मैं कह रहा ,
दिमको को मार कर ,
सरदार मैं जो बन रहा ।
है जुमला यही , यही क़ानून है ,
ख़ून से सनी उँगलियाँ ,
उनका ही क़सूर हैं ।
है पड़ी सड़क पर ऊँगली ,
ख़ून से सनी हुई ,
कौन कह रहा है पड़ी ख़ामोश वो ,
यू ही मरी हुई ।
क्यू बता कर दीमक उसे ,
बदनाम किये जा रहे ,
अजेंडा उँगलियों की मौत पर ,
उँगलियाँ से चला रहे ।
कब तक अपनी उँगलियों से ,
ख़ून तू यू बहायेगा ,
किसी को राम ,
किसी को रावण बनायेगा।
अरे रुकिये ...
था हिस्सा मैं भी उस भीड़ का ,
उँगलियों काट कर फ़ेक दिया ,
जिसने भी उनकी आज़ादी को ,
बीच में आकर रोक दिया ।
आज़ाद उँगलियों को क़ैद कर ,
उनकी आज़ादी के लिए आँसू बहाते हो ,
बेवजह क्यूँ ख़ून से सनी उँगलियों ,
पर चिल्लाते हो ।
मोटर साइकल का तो पता नहीं ,
कार से कोई अपना आया था ,
देख ख़ून से सनी उँगलिया ,
बड़े उल्लास से मुस्कुराया था ।
थी खड़ी भीड़ और भी ,
पर कोई उसे हसने से नहीं रोक पाया ,
अधमरे पड़े ऊँगली को ,
था कुचलने जो वो आया ।
उन हज़ारों के भीड़ में ,
काश कोई एक हिम्मत जुटा पाया होता ,
ख़ामोश हो रही ख़ून में लटपथ ऊँगली ,
को बस इतना समझाया होता ।
क्यू कर दिया क़ुर्बान ख़ुद को ,
ख़ातिर उसके शौक़ के ,
शोक में जो हंस रहा होगा ,
उँगलियों के मौत पे ।
सज गया दरबार उसके जनाज़े का ,
क्या ख़ूब था अन्दाज़ क़ातिल का ,
देख सब हैरान हो गये ,
घड़ियालों आँसू लिये जब “क़ातिल बाबा”
रो गये ।
पाखंड का भी अंत होना जरूँगी हैं ,
आख़िर क्या इनकी मज़बूरी है ,
क्यूँ नहीं उठी उँगलियाँ लिए कलम ,
क्या ख़ून में सना होना ज़रूरी हैं ।
इन उँगलियों को आज़ाद कर ,
हम नहीं चिल्लायेंगे ,
बेवज फ़िज़ूल मैं ख़ून नहीं बहाएँगे ,
सच को ना देंगे झुकने ,
ना झूठ को उठायेंगे ।
बेवजह ख़ून से सनी ना होंगी उँगलियों ,
स्याही से सजायेंगे ,
आज़ाद उँगलियों से ,
एक अखंड हाथ बनायेंगे ।
बस अब और नहीं ...
ख़ून से सनी उँगलियों को ,
लेकर मातम नहीं मनायेंगे ,
बेफ़िज़ूल में कोस कर सरदार को ,
अजेंडा नहीं चलायेंगे ..
एक नया भारत इन उँगलियों से ,
हम लिख कर जायेंगे ।
सान कर शान से मैं कह रहा ,
दिमको को मार कर ,
सरदार मैं जो बन रहा ।
है जुमला यही , यही क़ानून है ,
ख़ून से सनी उँगलियाँ ,
उनका ही क़सूर हैं ।
है पड़ी सड़क पर ऊँगली ,
ख़ून से सनी हुई ,
कौन कह रहा है पड़ी ख़ामोश वो ,
यू ही मरी हुई ।
क्यू बता कर दीमक उसे ,
बदनाम किये जा रहे ,
अजेंडा उँगलियों की मौत पर ,
उँगलियाँ से चला रहे ।
कब तक अपनी उँगलियों से ,
ख़ून तू यू बहायेगा ,
किसी को राम ,
किसी को रावण बनायेगा।
अरे रुकिये ...
था हिस्सा मैं भी उस भीड़ का ,
उँगलियों काट कर फ़ेक दिया ,
जिसने भी उनकी आज़ादी को ,
बीच में आकर रोक दिया ।
आज़ाद उँगलियों को क़ैद कर ,
उनकी आज़ादी के लिए आँसू बहाते हो ,
बेवजह क्यूँ ख़ून से सनी उँगलियों ,
पर चिल्लाते हो ।
मोटर साइकल का तो पता नहीं ,
कार से कोई अपना आया था ,
देख ख़ून से सनी उँगलिया ,
बड़े उल्लास से मुस्कुराया था ।
थी खड़ी भीड़ और भी ,
पर कोई उसे हसने से नहीं रोक पाया ,
अधमरे पड़े ऊँगली को ,
था कुचलने जो वो आया ।
उन हज़ारों के भीड़ में ,
काश कोई एक हिम्मत जुटा पाया होता ,
ख़ामोश हो रही ख़ून में लटपथ ऊँगली ,
को बस इतना समझाया होता ।
क्यू कर दिया क़ुर्बान ख़ुद को ,
ख़ातिर उसके शौक़ के ,
शोक में जो हंस रहा होगा ,
उँगलियों के मौत पे ।
सज गया दरबार उसके जनाज़े का ,
क्या ख़ूब था अन्दाज़ क़ातिल का ,
देख सब हैरान हो गये ,
घड़ियालों आँसू लिये जब “क़ातिल बाबा”
रो गये ।
पाखंड का भी अंत होना जरूँगी हैं ,
आख़िर क्या इनकी मज़बूरी है ,
क्यूँ नहीं उठी उँगलियाँ लिए कलम ,
क्या ख़ून में सना होना ज़रूरी हैं ।
इन उँगलियों को आज़ाद कर ,
हम नहीं चिल्लायेंगे ,
बेवज फ़िज़ूल मैं ख़ून नहीं बहाएँगे ,
सच को ना देंगे झुकने ,
ना झूठ को उठायेंगे ।
बेवजह ख़ून से सनी ना होंगी उँगलियों ,
स्याही से सजायेंगे ,
आज़ाद उँगलियों से ,
एक अखंड हाथ बनायेंगे ।
बस अब और नहीं ...
ख़ून से सनी उँगलियों को ,
लेकर मातम नहीं मनायेंगे ,
बेफ़िज़ूल में कोस कर सरदार को ,
अजेंडा नहीं चलायेंगे ..
एक नया भारत इन उँगलियों से ,
हम लिख कर जायेंगे ।