Saturday, September 14, 2019

मासूम ऊँगली

उँगलियो को ख़ून में ,
सान कर शान से मैं कह रहा ,
दिमको को मार कर ,
सरदार मैं जो बन रहा ।

है जुमला यही , यही क़ानून है ,
ख़ून से सनी उँगलियाँ ,
उनका ही क़सूर हैं ।

है पड़ी सड़क पर ऊँगली ,
ख़ून से सनी हुई ,
कौन कह रहा है पड़ी ख़ामोश वो ,
यू ही मरी हुई ।

क्यू बता कर दीमक उसे ,
बदनाम किये जा रहे ,
अजेंडा उँगलियों की मौत पर ,
उँगलियाँ से चला रहे ।

कब तक अपनी उँगलियों से ,
ख़ून तू यू बहायेगा ,
किसी को राम ,
किसी को रावण बनायेगा।

अरे रुकिये ...

था हिस्सा मैं भी उस भीड़ का ,
उँगलियों काट कर फ़ेक दिया ,
जिसने भी उनकी आज़ादी को ,
बीच में आकर रोक दिया ।

आज़ाद उँगलियों को क़ैद कर ,
उनकी आज़ादी के लिए आँसू बहाते हो ,
बेवजह क्यूँ ख़ून से सनी उँगलियों ,
पर चिल्लाते हो ।

मोटर साइकल का तो पता नहीं ,
कार से कोई अपना आया था ,
देख ख़ून से सनी उँगलिया ,
बड़े उल्लास से मुस्कुराया था ।

थी खड़ी भीड़ और भी ,
पर कोई उसे हसने से नहीं रोक पाया ,
अधमरे पड़े ऊँगली को ,
था कुचलने जो वो आया ।

उन हज़ारों के भीड़ में ,
काश कोई एक हिम्मत जुटा पाया होता ,
ख़ामोश हो रही ख़ून में लटपथ ऊँगली ,
को बस इतना समझाया होता ।

क्यू कर दिया क़ुर्बान ख़ुद को ,
ख़ातिर उसके शौक़ के ,
शोक में जो हंस रहा होगा ,
उँगलियों के मौत पे ।

सज गया दरबार उसके जनाज़े का ,
क्या ख़ूब था अन्दाज़ क़ातिल का ,
देख सब हैरान हो गये ,
घड़ियालों आँसू लिये जब “क़ातिल बाबा”
रो गये ।

पाखंड का भी अंत होना जरूँगी हैं ,
आख़िर क्या इनकी मज़बूरी है ,
क्यूँ नहीं उठी उँगलियाँ लिए कलम ,
क्या ख़ून में सना होना ज़रूरी हैं ।

इन उँगलियों को आज़ाद कर ,
हम नहीं चिल्लायेंगे ,
बेवज फ़िज़ूल मैं ख़ून नहीं बहाएँगे ,
सच को ना देंगे झुकने ,
ना झूठ को उठायेंगे ।

बेवजह ख़ून से सनी ना होंगी उँगलियों ,
स्याही से सजायेंगे ,
आज़ाद उँगलियों से ,
एक अखंड हाथ बनायेंगे ।

बस अब और नहीं ...

ख़ून से सनी उँगलियों को ,
लेकर मातम नहीं मनायेंगे ,
बेफ़िज़ूल में कोस कर सरदार को ,
अजेंडा नहीं चलायेंगे ..
एक नया भारत इन उँगलियों से ,
हम लिख कर जायेंगे ।

Friday, September 13, 2019

गुज़ारिश

ये जो ठंडी सी हवाओं में ,
पत्तों के छाओ में ,
चिड़ियों की चटचटाहट ,
और वो मेरी बाँहों में ।

रख कर सिर अपना कंधे पर मेरे ,
ख़्याल उनके बुन रही थी ,
क़रीब बैठी थी बेहद मेरे ,
पर साथ उनके चल रही थी ।

यू जो फेरते उँगलियों ,
बालों पर उसके ,
हवा ने रूख मोड़ दिया ,
सर्द हवाओं ने सिलसिला तोड़ दिया ।

देखती थी टकटकी लगाये ,
निगाहे जो हर वक़्त मुझे ,
आज वो नज़रें चुरा रही थी ,
कुछ तो वो छिपा रही थी ।

ना ही चेहरे पर वो नूर था ,
ना जाने मेरा क्या क़सूर था ,
धड़कते थे दिल में धड़कनो की तरह ,
जा रहा वो अब मुझसे दूर था ।

रोकने की कोशिश कर के ,
दिल नहीं दुखाना चाहता था ,
हो चुकी मोहब्बत किसी और की ,
हक़ नहीं जताना चाहता था ।

अब जा रही हो जो मेरे दिल से दूर ,
उनसे दूर कैसे जाओगी ,
गर छोड़ दिया उसने इस दफ़ा ,
कंधे पर रखने सिर किसके .. तुम आओगी ।

किन्नर

आज की सुबह कुछ ख़ास थी ,
माँ के चेहरे पर ख़ुशी बेशुमार थी ,
पापा को बेटी प्यारी ,
वंश को बेटे की दरकार थी ।

माँ के जिस्म से अलग होने को ,
वक़्त मेरे जितने पास आ रहा था ,
ना जाने क्यू माँ से ,
ख़ुद को मैं दूर पा रहा था ।

ऐसा पहली दफ़ा होने को आया था ,
पैदा होने पर रोता सुन ,
कोई नहीं मुस्कुराया था ,
मेरी पहचान से मातम छाया था ।

माँग रहे थे दुआ सभी जब,
क्यू दुआ क़बूल नहीं हो पाई ,
ना आया बेटा , ना आई बेटी ,
किन्नर थी ... माँ के घर आई ।

क्यूँ नहीं कोख में मुझे मिटा दिया ,
क्यूँ मुझे ऐसा बना दिया ,
कोख से जन्मी थी जिस माँ के ,
उसने भी ठुकरा दिया ।

क्यूँ नहीं बन पायी पापा की लाड़ली ,
ना ही बन पाया घर का लाल ,
पैदा होते ही छोड़ दिया ,
क्यूँ मुझे मेरे हाल ।

माना की मैं अलग हु जिस्म से ,
पर दिल मेरा भी धड़कता हैं ,
माँ की ममता और परिवार की ख़ातिर ,
हर वक़्त तड़पता है ।

यू तो पहचान मुझे मेरी मिल गई ,
पर आज भी अपनो से अनजान रह गई ,
ना वो मुझे अपनाते , ना अपना बनाते ,
हाय हाय “ किन्नर “ ... कह ,
अक्सर आगे बढ़ जाते ।

वक़्त वो भी ज़रूर आयेगा ,
जा मेरी पहचान जान कर ,
दुनिया मुझे अपनायेगी ,
उस रोज़ माँ भी सीने से लगाएगी ।।