Thursday, August 7, 2014

चींख

मेरी ये कविता देश के हर उस नारी को समर्पित जिसमे जज़्बा है अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने का ..



मेरी एक चीख से ,
समा सहम गय़ा ,
सितम से ढकी मैं से ,
मेरा मैं भी मुझ से खो गय़ा .


मेरा कसूर सिर्फ मेरी मोहब्बत,
पर क्या सजा सुना दिया,
खेला करती थी जिन हाथो में, 
उन्हीं हाथो ने मुझे जिंदा दफना दिया.


मैं चीखती चिल्लाती ,
झटपटा रही थी, 
हालत ये देखकर मेरी ,
जिन आखों में बसा करती थी मैं ,
वो भी नहीं थी तरस खा रहीं  .


नोच नोच कर मेरे तन को, 
कोई हवस मिटा रहा था, 
तो कोई  मोबाइल मे कैद कर,
दुनिया को दिखा रहा था.


हाथो को चादर बना ,
अपनी इज्जत बचा रही थी ,
भटक कर इधर से उधर ,
अपनों से पराये हो चुके मे ,
अपनों को तलाश रही थी .



जिन गलियो मे खेला करती थी ,
कभी पकड़ कर अपनो के हाथ  ,
आज उन्हीं गलियों में छुड़ा रही थी, 
गैरो से अपना हाथ .



दोड़ते फानते चीखते चिल्लाते ,
घर तो मैं आ गई, 
सहमी सी मै को देखकर ,
मेरे अपनों के चेहरे हॅंसी आ गई .


क्या अपने क्या पराये ,
सब अब ये कहने लगे थे ,
जो हाल मेरा हुआ ,
वो तेरा भी हो जायेगा ,
सोचना भी मत मोहब्बत का ,
वरना वद से वत्तर हो जायेगा .


सहमी मैं एक रोज,
हिम्मत से जा ठहर गई, 
मानो खुद खडे होने का ,
ज्जवा वो पा गई.


लोगो ने दे वास्ता ,
फिर अपना बना लिया,
इज्जत नाम के चादर से ढककर, 
मुझे समझा बुझा दिया.


पर मैं अब कहॉ रूकने वाली थी, 
उतार कर उस चादर को , 
खुद को सामने ला दिया ,
मैं अब हम नहीं होने दूंगी,
वहाँ खडे दरिंदो को बतला दिया .


,उस रोज मैंने ठान लिया ,
अब बस अब और नहीं ,
सामाजिक चादर की आड़ में ,
चलेगा सिर्फ उसका जोर नहीं.


अब मैं, मैं से हम हो गई ,
 भुला कर उन बातों को ,
आगे बड़ गई, 
अब मेरी एक चीख बनकर बुलंद आबाज ,
मुझ जैसे कितने औरो की ,
वो शान बन गई .


सहमी सी वो , अंजान ना रह गई, 


मेरी एक चींख , अब आवाज बन गई।


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