Friday, July 25, 2014

साहिल की तलाश

जो कभी था ही नहीं तुम्हारा ,
उसपे हक़ कैसा जाताना ,
टूट कर ख्वाबो के ख्यालो से ,
रूठ मत जाना .

वक़्त भी खूब रंग बदलता है ,
तब समझ आया ,
जब उस रंगीन दुनिया को ,
बेरंग मैंने पाया .

रुठने का सिलसिला अभी जारी है ,
बेवजह हे हो रहा मन भारी है .

चौतरफा घिरा मांझी ,
साहिल तलास रहा है ,
एक पग तल के लिए ,
इधर-उधर भाग रहा है .

चारोँ ओर देख समुंद्र
वो नावो पर घर बना रहा था ,
अपनों के फेके पत्थरों से ही ,
उसे सजा रहा था .

कुछ जख्म ताज़े थे ,
तो कुछ सुख कर निशा छोड़ गए ,
आकर फिर कुछ दुर के अपने ,
उन निशा पर ,
फिर जख्म छोड़ गए .

अब असहज और निराश ,
थकता वो जा रहा था ,
लिए नम आँखे ,
फिर भी वो मुस्कुरा रहा था .

सोचकर उस अपने के वक़्त को ,
वो सहम जा रहा था ,
पाखंडी दुनिया के पाखण्ड को ,
अब कुछ हद तक समझ पा रहा था .

देख समुंद्र के तट को ,
वो खिलखिला गया ,
उम्मीद था जिस मुकाम का ,
उसको वो पा गया .

तोड़ कर पत्थरों से सजे घर को ,
वो बुरे ख़याल मिटा रहा था ,
ताज़ा पड़े जख्मो पर ,
हौसले का मरहम लगा रहा था .

मांझी अब आजाद था ,
मांझी अब आबाद था ,
और तोड़ कर अपनों के फेंके पत्थरों से ,
सजे घर को ,
तट पर उम्मीद का घर बना रहा था .

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