Sunday, April 23, 2017

नूर

मैं जी रही थी ज़िन्दगी ,
बड़ी ज़ोर शोर से ,
ख़ामोशी ने थाम लिया ,
ना जाने किस ओर से ।

मैं बड़ रहीं थी ओर मंज़िल के ,
मंजलि पीछे हो चली ,
ख़ूबसूरत सपनो की ख़ातिर ,
मैं अपनो को खो चली ।

थामा था हाथ बहुत भरोसे से ,
लगा हुए हम अधूरे से पूरे से ,
पर उस रोज़ हम भी टूट गए ,
जिस रोज़ वो हमें ख़ामोशी से छोड़ गए ।

लगा मानो सब ख़त्म हो गया ,
मेरी एक नादानी से ,
मेरा मैं भी मुझसे दूर हो गया ।

ख़ुद को तलाशने मैं अब निकल पड़ी ,
लोगों ने ली निगाहे थी फेर कहीं ,
आइना भी मुझे ना पहेचान सका ,
वो भी नूर से अनजान रहा ।

बदल रहीं इस दुनिया को ,
मैं थी पहचान गई ,
जीती थी जिस ज़िन्दगी की ख़ातिर ,
आज मेरी वो ग़ुलाम हुई ।


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