Thursday, November 1, 2018

ज़िक्र

उठ कर बस अभी कुछ दूर ,
जब मै चला था ,
जा उसी पल कल से ,
मै मिला था ।।

आज भी निशा क़दमों के तेरे ,
नज़र बहुत ख़ूब आते है ,
जब भी उन रास्तों पर ,
हम निकल जाते है ।।

अब ना आती है ख़ुशबू शमा में ,
ना ही होता वो गुलज़ार ,
चंद गिरे पत्ते और ख़ामोश तितलियाँ ,
कर जाती दिले इजहार ।।

रुक जाते अब हार कर ,
बस जो तेरा ज़िक्र ना आता ,
खोने को बहुत है अब भी ,
जो ये दिल ना समझाता ।।

और जब गुफ़्तगू करने लगी ज़िंदगी ,
फिर एक बार ,
हुआ ज़िक्र उनका ,
जिसने कर दिया मोहब्बत को गुलज़ार ।।

लेकिन अब भी ..,
ज़िक्र जब भी तेरा आता है ,
इश्क़ करने को ,
ये दिल चला जाता है ..।।

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