Saturday, April 6, 2019

एक अजनबी


शाम ढल कर रात हो चली ,
पहली दफ़ा जब निगाहे उनसे मिली ,
हम आ रहे थे छोड़ कर उम्मीद जहाँ ,
दे रही थी हिम्मत किसी अजनबी को वहाँ ।

देख उसकी इस अदा को ,
हम एक ज़ुल्म कर बैठें ,
पलट कर देखा था ख़ुद को भी कभी नहीं ,
लौट कर उस रास्ते पे उसके क़रीब जा बैठे ।

पिले गुलाबी सूट में सज कर ,
मानो अप्सरा आन पड़ी थी ,
खुली ज़ुल्फ़ और उनसे ढकीं निगाहे ,
देख जिन्हें धड़कने बड़ रही थी ।

हो गई दूर नज़रों से गायब ,
फिर भी ख्याल मन को आ जाते ,
अजनबी सूरत से ख़ूबसूरत सीरत ,
मानो एक दफ़ा फिर मोहब्बत करने चले जाते ।

बस अभी छोड़ कर कर जाने वाले थे ,
जिसे एक ख़्वाब मान मजधारे ,
लिये खुले ज़ुल्फ़ और मासूम निगाहे ,
आ गये थे बेहद क़रीब फिरसे हमारे ।

मानो थम सा गया हो सब ,
एक पल के लिये ,
कैसे बतायें हो गये उस अजनबी के हम ,
हर पल के लिये ।।

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