तुमको पाकर भी शायद ,
खो दिया है मैंने ,
बंद दरवाजों में बहुत ,
रो लिया है मैंने ।
इश्क़ निभाते निभाते ,
कब ज़ख्म कुरेतने लगे ,
फेरती उंगलियों से ,
अब गला रेतने लगे ।
तुम पर लूटा कर सब ,
मैं खुद लूट गया ,
महल के ख़्वाब देखते देखते ,
कहीं सड़क पर सो गया ।
वादा किया था निभाने का ,
वो भी तुम तोड़ गए ,
इश्क़ में तन्हाई मेरे हिस्से ,
तुम जाते जाते छोड़ गए ।
वक्त के साथ तुम ,
सब कुछ बदलने लगे हो ,
मुझे छोड़ कर ,
किसी गैर से मिलने लगे हो ।
खैर ,
इश्क में बहुत बदनाम सुने होंगे ,
पर बर्बाद कभी सुना है क्या ,
इश्क़ के बदले इश्क़ मांगना ,
कोई गुनाह है क्या ?!।
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