Thursday, July 28, 2016

उम्मीद

है शाम अंधेरी घनी सी ,
घनघोर अँधेरा छाया है ,
हैं मंज़र ख़ौफ़ का ,
हर ओर मौत का साया है ।

मैं देखू जिधर कही भी ,
कुछ नज़र नहीं आता ,
हैं उम्मीद तेरे आने की ,
सोच जिसे मैं मुस्कुराता ।

मैं थाम कर दामन अपनो का ,
कुछ आगे बस बड़ा था ,
पीछे मूँड़ कर देखा तो ,
सुनसान रास्ता पड़ा था ।

छोड़ गये वो हमें अपनो कीं ख़ातिर ,
हम उन्हें अपना कहते रह गए ,
वो पकड़ ग़ैरों का दामन ,
हमें कोसते रह गए ।

हुई ख़ता बस इतनी हमसे ,
हम अपनो कीं ख़ातिर जीते मरते है ,
वरना सच कहें ,
आप को आप के अपने ,
ही अक्सर कोसा करते है ।

चलो ख़ुशी है इस बात कीं ,
ख़ुशी है आज भी मेरे साथ ही ,
रोशनी जल्द वो लायेंगीं ,
इस घनघोर अंधेरे को मिटायेंगीं ।

अपनो कीं ख़ातिर जीने मरने वाले ,
हम यूँही अपना फ़र्ज़ निभाएँगे ,
छिपा लो कितनी भी चमक मेरी ,
एक रोज़ हम सबकी ख़ातिर जगमगाएँगे ।

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