Sunday, March 1, 2020

बेक़रार

अब .. जाना तो था मुझे  ,
कुछ यादें छोड़ कर ,
चंद लम्हों की वो ,
मुलाक़ातें छोड़ कर ।

जुगनुओं की ख़ातिर ,
सूरज ढलने को खड़ा था ,
सर्द होती हवाओं ने ,
जब उसकी ज़ुल्फ़ों को छुआ था ।

हरकतों से अंजान इशारों के ,
मिलते बिछड़ते निगाहो के ,
अब कुछ बात होने ही लगी थी ,
पर क्या करते जब जाने की हड़बड़ी थी ।

घटते वक़्त के साथ ,
हम कुछ क़रीब आ रहे थे ,
अजनबी एहसास छिपा कर ,
कुछ बता रहे थे ।

कुछ तो था दरमियाँ हमारे ,
जीना था बस इन यादों के सहारे ,
बिछड़ने को अब हम तैयार थे ,
समझ बैठे थे .. वक़्त के इशारे को ..इजहार थे ।

ख़त्म हो गया था सिलसिला हमारा ,
पर था नहीं दिल को जो गवारा ,
कुछ तो बाक़ी रह गया था ,
शायद दिल, निगाहों से कुछ कह गया था ।

पलट कर बस आख़िरी बार ,
देखने को उसे जैसे ही हम मुड़े थे ,
मानो उनकी भी निगाहे मिलने को ,
बेक़रार पड़े थे ।

ख़त्म नहीं ये शुरुआत है ,
कुछ दरमियाँ दिलों के ख़ास है ,
दूर हो कर भी ,
जो मेरे पास है ।।

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