बेहतर ही होता जो ना आते तुम ,
मुस्कुरा कर दिल ना चुराते तुम ,
ना ही होती कोई उम्मीद ख़ुद से ,
ना ही उसे फिर से तोड़ पाते तुम ।
पहली ही मुलाक़ात आख़िरी क्यूँ ना हुई ,
क्यूँ वक़्त ने फिरसे था मिलाया ,
दूर था हो मीलों मुझसे अब तक ,
फिर था ज़िंदगी के क़रीब आया ।
ना ही आँखों से अब होती बातें ,
ना ही हम उन्हें अब पढ़ पाते ,
ना ही बेताबी है मोहब्बत में ,
ना ही शिद्दत से उन्हें वो निभाते ।
मिल कर भी मीलों दूर खड़े है ,
जान कर भी अजनबी बने है ,
बेहतर ही होता जो ना मिलते ,
शायद यूँ ना हम कहते ।
ख़ैर इस ज़िंदगी का क्या अब ,
पर अगली ज़िंदगी बेहतर बनायेंगे ,
होगा शायद बेहतर ,
इस दफ़ा जो तुझे भूल जायेंगे ।
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