Thursday, September 24, 2020

कब्र

जो ना मिली होती दो गज़ ज़मीन ,

और मिट्टी की चादर ,

कही होते पड़े लावारिस ,

लिये जिस्म पर ज़ख़्मों के सागर ।


ना आया था कोई पहले मिलने ,

मेरे मिट्टी के ऊपर वाले कब्र में ,

था पड़ा सुनसान वो भी ,

ज़िंदा लाश के मरने के सब्र में ।


थी जान बाक़ी कुछ ,

और उम्मीद तेरे लौट आने की ,

अनगिनत दिये अंजाने ज़ख़्मों पर ,

मरहम लगाने की । 


ख़ैर मौत से पहले कब्र पर ,

कौन ही है आता ,

ज़िंदा पड़े अनगिनत क़ब्रों में ,

लाशों से कौन ही दिल लगाता ।


आज वो बैठी है मेरे कब्र के पास ,

भीगी पलकें और थोड़ी उदास ,

फेर रही वो ऊँगलियाँ कब्र पर ,

और फ़ुल के मरहम लगा रही ।


उसके इस अंजाने अन्दाज़ से ,

मानो ज़िंदा होने का दिल करता है ,

क्यूँ अक्सर ज़िंदा रहने पर ,

इतना प्यार नहीं मिलता है ।


अब मेरी रूह भी तुझ जैसे ,

किसी और जिस्म की जान हो गई ,

मेरे इस जिस्म से ,

वो भी अनजान हो गई ।


मेरी कब्र पर लौट कर फिर आना कभी ,

सिर रख कर सो जाना कभी ,

होगा मालूम शोर धड़कनो का ,

गर उन्हें सुन पाना कभी ।।

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