Saturday, June 8, 2019

बस ... और नहीं

रात के अंधेरे में ,
सब जगमगा रहे थे ,
सुनसान से होते रास्तों पर ,
जब हम चलने को आ रहे थे ।

रुक .. थाम कर उम्मीद लिये ,
हम एक जगह ठहर गये ,
आई पुकार कर मंज़िल की बस ,
जिस पर हम चढ़ लिये ।

थे और भी साथ मेरे , मुझ जैसे ,
लगा नहीं कुछ अलग वैसे ,
पर तभी एक भेड़िया पास आया ,
देख जिसे मन घबराया ।

सुकून के नींद में ,
जब सब सो रहे थे,
उस वक़्त हम इज़्ज़त की भीख माँग ,
बहुत रो रहे थे ।

छुआ जैसे उसने मुझे समझ कोई खिलौना ,
मैं ज़ोर से थी चिल्लाई ,
पर उस घनी रात और सुनसान रास्तों पर ,
मेरी आवाज़ नहीं थी कही पहुँच पाई ।

जिस्म को मेरे नोच दरिंदो ने ,
अपनी हवस की भूख थी मिटाई ,
ज़िंदा लाश बन कर पड़ी थी मैं ,
फिर भी उन्हें रहम ना आई ।

चंद लम्हों में मैं इस दुनिया से चली गई ,
सवाल बहुत पीछे छोड़ गई ,
शायद अब कुछ बदल जाये ।

शायद ...अब बस और नहीं ,
किसी की इज़्ज़त कोई नीलाम कर पाये ,
शायद मेरा दर्द इतिहास बन जाये ,
शायद अब देश बदल जाये ।।

बस और नहीं ..!!

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