Friday, August 23, 2019

ज़ख़्म

तेरे हाथों की मेहंदी ,
आँखों का नूर ,
करते थे मोहब्बत जिनसे ,
बिछड़े ना जाने क्यूँ हजूर् ।

पहली मुलाक़ात , पहली बात ,
बिछड़ते हम , मिलते जज़्बात ,
कुछ लम्हों का साथ ,
और वो मुलाक़ात ।

एक स्पर्श से हुआ शुरू सफ़र ,
ना जाने कैसे थम गया ,
खाते थे क़समें वादे जन्मो के ,
चंद लम्हों में था जो छिन गया ।

लगा मालूम जैसे ,
सब लूटा बैठे हम ,
दिल से धड़कन को ,
जुदा कर बैठे हम ।

तस्वीर जो आईना समझ निहारते थे ,
ख़ुद को जिसमें वो सँवारते थे ,
एक रोज़ अनजाने में टूट गया ,
मानो वो भी इस बेरुख़ी से रूठ गया ।

वक़्त के साथ मरहम बन यादें ,
एहसास के ज़ख़्म को भरने लगी ,
उन्हें उसके क़रीब ,
मुझे उनसे दूर करने लगी ।

लौट कर वक़्त फिर वही आया है ,
मालूम नहीं किसने खोया ,
किसने पाया है ।

पर अब ना वो बात है ,
ना ही वो जज़्बात है ,
ना ही वो “स्पर्श”
और ना ही अब वो साथ है ।

बस चंद यादें , ज़ख़्मों के निशा और उलझे अल्फ़ाज़ है ।।

No comments: