Wednesday, May 13, 2020

मुआवज़ा

मेरी ज़िंदगी को मौत बना कर ,
दाम लागते है मालिक ,
छुप छुप कर जीते आये की ,
खुल कर मौत दिखाते है मालिक ।

कभी ख़बरों को पढ़ने वाले को ,
ख़बर बनाते है मालिक ,
मुझ जैसे अनपढ़ के मरने पर ,
काग़ज़ लिखवाते है मालिक ।

हे मालिक , ख़ुशिया और ग़म ,
मालूम नहीं कौन रहता है साथ कम ,
फिर भी अनजान से रिश्ता आप बनाते है ,
बिन बुलाये मेहमान बन कर आ जाते है ।

मेरी सूरत जिससे मैं होता ख़ुद अनजान ,
पहचान लेते अक्सर वो शैतान ,
ख़ाक में मिला कर मुझे ,
दे देते मेरे मौत का मुझे ईनाम ।

मौत के इंतज़ार में बैठें रहते मालिक ,
गिद्ध बन नोचने को लाश ,
ले आते मेरा ही ख़ज़ाना लुट कर ,
मेरे मौत के बाद ।

क्यूँ नहीं कभी ज़िंदा को देते ज़िंदगी ,
या किसी उलझन में उसका साथ ,
हर बार सोच कर मसीहा ,
चुन लाते मालिक हम ,
बेचने ख़ुद की लाश ।

मालूम नहीं मालिक कभी ,
क्यूँ ख़ुद मुआवज़ा नहीं पाते ,
बन कर गिद्ध नोचने ,
मेरी ही लाश पर आते ।

ए मालिक ,
मुआवज़ा का दौर गर जाये थम ,
यक़ीनन मरेंगे कम ,
ज़िंदा रहेंगे हम , ज़िंदा रहेंगे हम ।।