Wednesday, June 10, 2020

मैं दिल्ली हूं

मैं ज़िंदा लाश बन ,
कहीं लावारिस पड़ी हूं।
कहीं आख़िरी है साँस बची ,
कहीं मौत की गोद में पड़ी हूं।
मैं दिल्ली हूं।

मालिक मेरे छोड़ कर मुझे ,
मेरे अपने गिनाते है ,
क़ैद कर मेरे बच्चों को ,
मुझे ख़ूनी बताते है ,
मैं दिल्ली हूं।

मेरे घर में ना दरवाज़े ,
ना ही दिलों में थी कभी दूरियां
पहले जलाया जिस्म को मेरे ,
दंगो के आग से ,
आख़िर क्या थी मजबूरियाँ ।

मैं आज अपने-पराये के जंग में ,
आत्मीयता को ही खो रही हूं,
सो रहे मालिक मेरे बंद कमरे में ,
और मैं खुले आसमां में रो रही हूं ,
मैं दिल्ली हूं ।

ना कोई पूछ रहा हाल मेरा ,
ना कोई ज़िंदगी बचा रहा है ,
आख़िर क्यूँ है भूख इतनी ,
क्यों मेरा जिस्म नोच कर मालिक खा रहा है ,
मैं दिल्ली हूं।

मैं गर बच गई जीवित
लौट कर ज़रूर आऊँगी ,
बंद घरों में ज़िंदा लाश ,
दुनिया को दिखाऊँगी ।

कौन कहता दिलवाले रहते यहाँ ,
मौत के सौदागर बने बैठे मालिक जहाँ ,
वक़्त ज़रूर जवाब दे जायेगा ,
मेरे मिट जाने पर वो ,
किस पर हुकूमत चलायेगा ।

मैं दिल्ली हुँ ,
ज़िंदा लाश क़ब्र के पास ।।

1 comment:

Vinod Pal said...

Bhai aapko delhi se hi nafrqt hai. UP dekho almost same halaat hai.Indore me dekho badtar halat hai. Ahmedabad dekho. Kya kiya apne Delhi k liye. Itna pyaar hai ki Kavita likh daali. Kyu ki kuch kaam karne se jyada aasan pen chalana hai. Kavita aachi hai agar ye desh k haalat pe hoti. MERI DELHI MIEN HI SAVAARU.