Tuesday, July 21, 2020

शोर

मालूम नहीं ज़िंदगी को , मंज़ूर क्या ,
पर कुछ तो , ख़ाली ख़ाली सा लग रहा ,
रात के अंधेरे में , चमकते थे जुगनू कभी ,
अब हर ओर अँधेरा बस रहा । 

पास हैं सब मेरे दिल और जज़्बात के ,
फिर भी कुछ , कमी सी लग रही ,
ख़ामोशी और अंधेरे में ,
जल्दी आने की ,जंग चल रही  ।

वक़्त भी हर रोज़ ,एक सा ही गुज़र रहा ,
कभी मुस्कुरा , कभी गुम रहा ,
मालूम नहीं इतनी क्या है उलझन ,
जो कभी दिल सहम , तो कभी ठिठुर रहा ।

ख़्यालों मे शोर इतना की , सब सुनाई देता है ,
बेवजह ही अक्सर , वो रास्ते मोड़ लेता है ,
ना होती कोई मंज़िल , ना कोई मुसाफ़िर ,
फिर भी अनजान रास्तों पर , चल देता है ।

ना होता पता मंज़िल का ,
और ना ही होता है कोई ठिकाना ,
लोगों से भरा ये शहर ,
लगता है ना जाने क्यूँ वीराना .. अनजाना ।।

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