कितनी उलझन है उनकी बातों में ,
सहमी है जो जज्बातों में ,
जो है बेकरार एक दफा उड़ने को ,
कैद में बैठी है खामोश रहने को ।
शाम के बाद का हो अंधेरा ,
या दिन का हो उजाला ,
देखा है हर दौर उसने ,
पर लौटा नहीं कोई दोबारा ।
कहती नहीं बाते अपनी ,
अपनो से भी छिपाती है ,
दर्द है अनगिनत लम्हों के ,
मरहम उनपर उम्मीदों के लगाती है ।
अदा है खूब लाजवाब जिसकी ,
हुस्ने दीदार है ,
है मौजूद मोहब्बत चौतफा जिसके ,
अधूरा तब भी ऐतबार है ।
लम्हों में खोने को होती तैयार वो ,
फिर लौट कर पिंजरे में आ जाती है ,
आ कर आसमां में एहसासों के ,
उड़ना भूल जाती है ।
हो सके तो खुद से खुद को ,
चंद लम्हों के लिए जुदा कर जाना ,
गर रह जाए अधूरी कोई ख्वाइश ,
अजनबी ढूंढ लाना ।
भूल कर मौजूद उलझनों को ,
संग लम्हों के उड़ जाना ,
कुछ वक्त ही सही ,
खुद में खो जाना ।
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