Saturday, April 11, 2020

नाता

मोहब्बत की मइयत से निकलने के बाद ,
रुख़सत के ज़ख़्म भरने के साथ ,
कुछ तो अधूरा रह गया था ,
शायद दिल धड़कनो से छूटते वक़्त ,
कुछ कह गया था ।

जिन रास्तों पर नंगे पाओ ,
अक्सर हम चला करते थे ,
जिन रास्तों पर बिन मरहम ,
ज़ख़्म यू ही भरा करते थे ।

आज उसके ख़्याल से ही ,
ज़ख़्म उभर आते है ,
मरहम लगने पर ना जाने क्यूँ ,
और गहरे ज़ख़्म हो जाते है ।

सूरज से पहले तेरी रोशनी ,
अक्सर हमें जगाती थी ,
चाँद बन रात के अंधेरे में ,
ख़्वाबों को रौशन कर जाती थी ।

तेरे ज़ुल्फ़ों के छाओ में अक्सर ,
बैठा ख़ुद को पाता था ,
वजह नहीं होती थी जब कोई ख़ास ,
बेवजह तु वजह बन जाता था ।

बिछड़ कर तुझसे , तेरी यादों से ,
हर झूठे सच्चे वादों से ,
अब दूर जा चुका था ,
ख़ुद को ख़ुद में छुपा चुका था ।

आज ये कैसा ख़्वाब सा सच ,
मैं देख रहा ,
सूरज से पहले तेरी रोशनी ,
मुझे जगाने आई है ,
ख़त्म सी होती मालूम ,
लगती ये तन्हाई है ।

कुछ तो है नाता गहरा तेरा मेरा ,
वरना दफ़्न हुए मुर्दे को ,
कौन ज़िंदा कर पाता है ,
धड़कनो को छोड़ चुके दिल से ,
कौन धड़कनो को धड़काता है !

1 comment:

Unknown said...

Superb piece of creation 👌