कुछ टूट रहे पत्ते ऊपर से ,
कुछ नीचे से पेड़ उग रहें ,
अपने ही अरमानों को ,
हम अपने फैसलों से कुचल रहें ।
हां जिंदगी भी गुलजार हैं ,
और जब तक जिंदा है हम ,
पर खुद के फैसलों से ,
थोड़े शर्मिंदा हैं हम ।
क्या करें इस जिंदगी का ,
जो हर पल में बदल जाती हैं ,
एक पल करती बेहद मोहबब्त ,
अगले ही पल बेवफा बन जाती है ।
हर सुबह के बाद शाम ,
और हर खुशी के बाद गम ,
हर रोज़ बार बार मर कर भी ,
देखो अब तक जिंदा हैं हम ।
पर हम जैसा मुसाफ़िर भला ,
कभी कहां ठहर पाता हैं ,
उजाड़ कर बागीचा अपना ,
किसी और का गुलजार कर जाता है ।
खुशकिस्मत हम जैसे ,
और भी इस महफिल में बैठे हैं,
कुछ हो रहें बर्बाद खुद से ,
कुछ "आबाद" हम जैसे हैं ।।
No comments:
Post a Comment