Sunday, October 13, 2019

उम्मीद

बिखर कर शीशे के टुकड़ों सी ,
जा गिरी थी जब , ज़िंदगी ,
उल्फ़तो के आफ़तों से ,
जा मिली थी ज़िंदगी ।

लगा जब सब छूट सा गया ,
मेरा मैं मुझसे रूठ सा गया ,
ना मिली शाम उस रात चाँद से ,
रूठी हो मानो चमचमाते आसमान से ।

हर दफ़ा कोशिश शिद्दत से करता मैं ,
दूर हो कर उसके पास रहता मैं ,
फिर भी सब ख़त्म सा मालूम होता है ,
जब पास हो कर भी वो दूर होता है ।

कभी सूरज के उगने से पहले ,
जो आँखों में चमक जाता था ,
जिस्म मेरा जिसकी ख़ुशबू से ,
हर दफ़ा महक जाता था ।

अब उग कर सूरज सुबह को ,
शाम में छिप जाता है ,
इंतज़ार में उसके लौट आने के ,
वक़्त अक्सर रूठ जाता है ।

मालूम नहीं कब तुम लौट कर आओगे ,
मेरी आँखों को चमकाओगे ,
फिर महकेगा जिस्म मेरा तेरी ख़ुशबू से ,
कब रूठे वक़्त को मनाओगे ।

है उम्मीद बस इतनी सी ,
फिर से मैं मुस्कुराऊँगा ,
आज़ाद हो चला दिल मेरा ,
कही क़ैद कर जाऊँगा ।।

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