वो शाम आई ही क्यों ,
जब अंधेरे में उसे गुम होना था ,
उसे कुछ हद तक पहचान ही क्यों ,
जब कुछ पल में ही अंजान होना था ।
चंद रोज और अनगिनत लम्हें ,
हम बेहद बदल रहे थे ,
लगा नहीं हम , हम थे ,
शायद अब संभल रहे थे ।
नज़र हटाना तस्वीर से जिसके ,
मुश्किल हो चला था ,
खुशियों से संवारने की थी जिद्द जिसे ,
वो खफा कर चला था ।
बिछड़ने का गम नहीं ,
क्योंकि था वो कोई हमदम नहीं ,
गम हैं उसके बेवजह रूठ जाने का ,
अंजाने में ही सही .. दिल दुखाने का ।
अनगिनत सवाल अब भी ,
अपने जवाब तलाश रहे है ,
कुछ तो हुई है यकीनन खता ,
वो बिन कुछ कहे दूर जा रहे हैं ।
खैर,
कोई अपना तो ऐसे जाता नहीं ,
जैसे तुम गए हो ,
एक झटके में ही सब तोड़ कर ,
बेवजह मुंह मोड़ गए हो ।।
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