उस रोज बजी दरवाजे की घंटी ,
सब बदलने वाला था ,
उसकी पहली झलक के बाद ,
दिल मचलने वाला था ।
वो बातें लंबी होती गई ,
और वक्त छोटा पड़ गया ,
बड़ी मुश्किल से टूटा सफर ,
जब कोई और उसे मिल गया ।
पहली ही मुलाकात में ,
वो हमें सब कुछ बता गए ,
कुछ वक्त भी मांगा उन्होंने .. कभी कभी ,
और हम झुठला गए ।
कैसा है ये सफरनामा ,
क्या है इसका मुकाम ,
जो भी बीता वक्त साथ में ,
यकीनन खूबसूरत बहुत है वो "इंसान"।
बिन कुछ कहे उसके ,
हम सब जान गए ,
पहली ही मुलाकात में ,
हम पहचान गए ।
पर कर बैठे गलती उसे खो देने की ,
एक रोज अंजाने में ,
शायद था सफर इतना सा ही ,
हमारे जिंदा रह जाने में ।
रंग भी एक आंखो का ,
ढंग भी एक बातों का ,
आखिर कैसा ये इतेफाक है ,
अजनबी हो कर भी लगता ख़ास है ।
कैसे उसको मैं इतना जान गया ,
कैसे इतना पहचान गया ,
जवाब अब भी अधूरा है ,
शायद वक्त करे जिसे पूरा है ।।
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