Thursday, May 20, 2021

ख़्वाब और तुम


चंद रातें ही गुजरी थी अभी ,

और अनगिनत मुलाकाते हो चली थी ,

अजनबी तो तब भी थी तुम और आज भी ,

बस एक कहानी चल पड़ी थी ।


तेरी मासूमियत और शिद्दत से देखती निगाहें ,

मानों ख़्वाब हर दफा सच सा लगता था,

ज़िक्र ना हो जिस ख़्वाब में तुम्हारा ,

वो ख़्वाब गुनाह सा लगता था ।


मेरी कल्पना से भी परे ,

और दीपक की रोशनी के तले ,

वो सर्द सा एहसास हो तुम ,

जब जब ख्वाबों में ,

होती मेरे बेहद पास हो तुम ।


वहां ना कोई गैर होता ,

बेवजह ही नहीं कोई बैर होता ,

ना ही होती है तेरी बेवफाई ,

ना ही मांगती जिंदगी मुझसे कोई सफाई । 


पहली दफा जो थामा था हाथ तुमने ,

और मैं किन्ही रास्तों में खो गया था ,

याद है ना वो रात और उसकी बातें ,

जब मैं ख़्वाब सुनाते सो गया था ।


वरना कैसे कोई पहले नींद चुराता है ,

ख्वाबों में आकर सुकून दे जाता है ,

होती हो बिलकुल मेरे कल्पना सी ,

होश में आते ही जो ख़्वाब तोड़ जाता है ।


कैसे कोई पल भर में अपना ,

पल भर में अजनबी बन जाता है ,

कैसे कोई देकर दर्द अंजाने गुनाहों का ,

चैन से सो जाता है ।


ख़्वाब में ही बेहतर है मौजूदगी तेरी ,

हर सुबह जो टूट जाता है ,

अनगिनत लिए ज़ख्म गुनाहों के ,

हर रात फिर ये दिल गुनेहगार बन जाता हैं ।