शायद अल्फाजों से करते थे उनका श्रंगार ,
फेरती ना थी जुल्फों पर उंगलियां वो हर बार ,
शायद हम ही उन्हें अधूरा छोड़ आए ,
बिन मांगे फरियाद तोड़ आए ।
शायद अक्सर हर रात के अंधेरे में ,
आज भी वो चांद को निहारती होगी ,
शायद आज भी आईने में ,
ख़ुद को संवारती होगी ।
शायद आज भी होगा कोई हमराही ,
जिसके संग वो खो जाती होगी ,
शायद हमनें ना सुने जो किस्से ,
वो उन्हें सुनाती होगी ।
शायद आज भी होंगे जिक्र में कहीं हम ,
और फिक्र भी वो जताती होगी ,
शायद मंजिल यकीनन एक नहीं ,
फिर भी रास्ते वो बनाती होगी ।
शायद हम थे गलत बेशक उसकी निगाहों में ,
उलझे अक्सर धूप और छाव में ,
शायद आज भी वो अश्क बहाती होगी ,
हर दफा जब रूठ जाती होगी ।
शायद ये पल हो आखिरी मेरा ,
और अल्फाज भी रह जाए अधूरे ,
शायद रह गई रूह जिस्म में जिंदा ,
लौटेंगे इन अल्फाजों को करने पूरा ।
शायद छोड़ जा रहे ..
कुछ पल .. कुछ एहसास ,
कुछ यादें .. और कुछ अल्फाज ।
और हां गर नहीं लौटे कभी हम ,
कर देना तुम इन्हें पूरा ,
शायद जो किस्सा रह गया अधूरा ..।।
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