मैंने इश्क़ में हर हद को ,
सिर्फ़ तेरे लिए पार किया ,
तूने क्यों नहीं मुझसे ,
मुझ जैसा प्यार किया ।
मैं तेरे हर इनकार को ,
इज़हार मान लेती थी ,
तेरी हर जुल्म को ,
मरहम का नाम देती थी ।
ना चढ़ा था मुझे किसी का,
आज तक फितूर हैं ,
बस मेरे हिस्से तेरी खुमारी ,
बस इतना ही मेरा कसूर है ।
फिर भी तुझको ही ,
मैंने अपना संसार माना था ,
पर तेरे दिल ने हमेशा मुझे ,
कोई गैर जाना था ।
गैर इश्क़ में तूने कर के ,
मुझे इश्क़ करना सीखा दिया ,
बड़े ही नाज़ुक से दिल को ,
तूने पत्थर का बना दिया ।
बर्बाद नहीं इश्क़ में कोई ,
सब आबाद होने आते हैं ,
कुछ अपनों से इश्क़ निभाते ,
कुछ गैर के हो जाते हैं ।।
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