आ ही गई वो रात भी ,
जिसका हमें डर था ,
कल्पना के इस सफ़र में ,
अब मेरा ना कोई हमसफ़र था ।
छोड़ गई मेरे हाल मुझे ,
वक्त पर बुला कर ,
क्या तोहफ़ा दिया उसने हमें ,
एक पल में भुला कर ।
ना अब वो रात हैं ,
ना ही उसमें वो बात है ,
खूबसूरत गुजरते वक्त का ,
कैसा ये सौगात है ।
बढ़ते इंतजार के साथ ,
एहसास क्यों नहीं गुजर रहें ,
हो कर भी जुदा उससे ,
उसे हम अपना क्यों कह रहें ।
ना ही कोई खोज ना खबर ,
ऐसा जुल्म-ए-सितम क्यों ए हमसफ़र ,
क्या तुम लौट कर नहीं आओगी ,
हमें तन्हा यूंही छोड़ जाओगी ।
ना अब कोई खूबसूरत रात होगी ,
ना जिंदगी भर जिंदगी मेरे साथ होगी ,
मालूम नहीं मेरे हिस्से लिखी ,
कौन सी आखिरी रात होगी ।।
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