हां मुझे तुमसे मोहब्बत है ,
क्या तुम्हें नहीं ,
बताना जरा सच सच ,
क्या ये सच नहीं ।
क्या ये सच नहीं ,
की तुम मेरे खुशियों की ताबीज़ हो ,
जिस्म से दूर होकर भी ,
रूह के सबसे करीब हो ।
रूह के करीब हो ,
पर क्या तुम मेरा नसीब हो ,
इस मोहब्बत को निभाने वाली ,
क्या तुम कोई रकीब हो ।
रकीब जानकर एहसासों के कंकड़ ,
जो दिल में चुभने को आते है ,
उन इश्क़ की गलियों से गुजरने पर ,
क्या तुम्हें मुझ जैसे ही सताते है ।
सताता हू मैं तुम्हें ,
या तुम मुझे सताती हो ,
मेरा होकर भी ,
अजनबी रह जाती हो ।
अजनबी बन कर भी ,
अपनी सी तो लगती हो ,
अक्सर जब अंजान रस्तों में ,
आ मुझसे मिलती हो।
मिलोगी ना तुम उतनी ही शिद्द्दत से ,
जैसे मुझसे इश्क़ निभाती हो ,
अक्सर रातों में ,
मुझे उजालों से भर जाती हो ।।
1 comment:
Dear moon,
It's always so calming and relaxing whenever I hear your poetries.!
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