कोई ख़्वाब देखा था मैंने ,
या मैं किसी सच से मिल रहा था ,
माथे पर अपने बिंदी से ,
जब मेरा मेहबूब सज रहा था ।
चांदनी रात में वो ,
किसी चांद सा चमक रही थी ,
अपने इस श्रृंगार से वो ,
खुद में जब वो उलझ रही थी ।
पलकें उसकी थम गयी ,
जब आईने में खुद को निहारा ,
और फ़िर अपने सच को ,
क्या खूब उसनें नकारा ।
मैं मंद मंद बस मुस्कुराता रहा ,
खुबसूरती उसकी झुठलाता रहा ,
निगाहों में बस चुके इश्क़ को ,
दिल में बसाता रहा ।
माथे से जब उसनें ,
बिंदी को हटा दिया ,
लगा किसी सच को
एक पल में झुठला दिया l
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