Friday, November 5, 2021

उलझन

तुम और तुम्हारी नज़रंदाजी ,
आज भी मुझे उलझाते हैं ,
जब कभी मेरे पते पर ,
तेरा कोई तौफा लेकर आते हैं ।

तंग मैंने तुमको किया कहां ,
वो तो बेवजह एक शरारत हैं ,
पहले रोज़ से आज तक ,
तुम्हारे लहज़े की नजाकत है ।

हर रोज़ मिलना और बिछड़ना ,
तुम्हें क्या खूब भाता हैं ,
आने से पहले ही जो अक्सर ,
जाने का वक्त बताता हैं ।

दिल का हाल भला तुम्हारे ,
तुमसे बेहतर कौन ही जानता होगा ,
हर किसी के दिल में ,
जो अपनी तस्वीर मानता होगा ।

सबसे अलग सबसे खुबसूरत ,
तुमसा ही एक गहना हैं ,
आज तक जिसे कभी तुमने ,
अपने माथे पर नहीं पहना हैं ।
 
भला अपने सुकून को तंग कर के ,
मुझ जैसे कौन चैन से सोया होगा ,
ना जाने कितनी दफा किसी सन्नाटे में ,
मेरे आसुओं ने तकिया भिगोया होगा ।
 
इंतजार में तुम्हारे और कितना ,
खुद को ऐसे उलझाऊंगा ,
एक रोज़ तो तुम्हारा भी ,
वो "कल" सामने ले आऊंगा ।।

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