सबके हिस्से में है इश्क ,
बस मुझे छोड़ कर ,
चली गई मेरी इकलौती मोहब्बत ,
जबसे मुंह मोड़ कर ।
मैंने उसे ही रब माना था ,
मेरा मंदिर उसका ठिकाना था ,
मेरी मन्नते भी हुई थी कबूल कई दफा ,
थी दरमियां हमारे जब वफा ।
अब तो महफिलों में भी भटकता हूं ,
सिर्फ उसकी ही तलाश में ,
होता है जिक्र जिसका हर रोज ,
मेरी अरदास में ।
हां ये सच है दिल लगाने की कोशिश ,
हर दफा जब भी किसी गैर से करता हूं ,
जहन में होता है सिर्फ जिक्र तुम्हारा ,
जब भी मोहब्बत में पड़ता हू ।
पर किसी और का दिल दुखाना ,
लाकर तेरी मौजूदगी का बहाना ,
जायज़ होगा क्या ?
अगर हां तो चलो ,
एक चाल चलते है ,
इस दफा हम भगवान ,
और वो भक्त बनते हैं ।
पर इश्क़ सच में क्या ,
यही सिखाता है ,
तोड़ कर दिल किसी गैर का ,
कौन अपना घर बसाता है ।
1 comment:
Can you please help me in understanding the title with reference to your poem??
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