जाम , शाम और तुम ,
तीनों ही महफ़िल में बैठा करते थे ,
नशा भी खुलेआम ,
उन दिनों हम क्या खूब किया करते थे ।
ज़ाम के लबों पर बसने से लेकर ,
तुम्हारे दिल में उतरने तक ,
शाम के गुजरने से ,
मेरे बिखरने तक ।
सब कुछ इश्क़ सा था मेरे लिए ,
और क्या गज़ब थी दीवानगी ,
खो जाऊ गर तुझमें ,
हो जाती थी खूबसूरत शाम भी ।
पर एक रोज़ ,
शाम ने मुझे अंधेरे से मिलवाया ,
ना था जाम हाथों में ,
और ना तू कहीं नजर आया ।
लगा सब टूट कर बिखर गया हो ,
जैसे तू मुझसे मुंह फेर गया हो ,
अब जाम भी लबों पर यूं आता नहीं ,
हुआ क्या है क्यों कोई बताता नहीं ।
शाम को छोड़ कर ,
यहां सबका दाम लगता है ,
यूहीं अक्सर महफिलों में ,
सरेआम लगता है ।
भूल गया था नशे में मैं ,
तुम दोनों भी तो बिकते हो ,
अब तुम दोनों का नशा भी ,
बेहद आम लगता है ।
वक्त के साथ सब गुज़र गया ,
मोहब्बत मैं एक और दफा कर गया ,
पर इस दफा सिर्फ दिल्लगी है ,
नशे में पड़ने की अब किसे हड़बड़ी है ।
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👌
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