Sunday, July 18, 2021

खिड़कियां

आज जब सब बैठे थे महफ़िल में ,
हम नज़रे उनसे मिला रहे थे ,
मेरी सामने वाली खिड़की से ,
जितनी दफा वो गुजरते जा रहे थे ।

इन खिड़कियों के खेल में ,
देखो मैं कितना उलझ रहा था ,
पीछे वाली खिड़की के डर से ,
सामने वाली खिड़की को ,
छुप छुप कर देख रहा था ।

पीछे वाली खिड़की में मौजूद ,
मेरा बीता वो खूबसूरत कल था ,
और सामने वाली खिड़की में ,
जी रहा मैं ये हसीन पल था ।

पर भूल गया था मैं ,
ये तो मेरा ठिकाना ही नहीं ,
मौजूद दोनों खिड़कियों में ,
एक ने मुझे तो दूसरे को मैंने ,
अब तक जाना ही नहीं ।

पर कल आता ही कहां है ,
आज जाता ही कहां है ,
रात के अंधेरे के इश्क़ को ,
कोई जताता ही कहां है ।

मैं अब पीछे वाली खिड़की में ,
फिरसे लौट आया ,
था घना अंधेरा और बादलों से ,
आसमां जब घिर आया ।

मालूम चला जब लौटने लगा ,
उनके भी पीछे वाली खिड़की में ,
मौजूद उनका कल था ,
सामने वाली खिड़की में ,
महज कल्पनाओं वाला खूबसूरत पल था ।

ना बंद होंगी ये खिड़कियां कभी ,
और ना ही ये कश्मकश ,
इश्क़ तो दिल के धड़कनों से है ,
जो है ताउम्र आप का हमसफ़र ।।

1 comment:

shiney said...

❤❤