मैं आज अपने दोस्त ,
मुन्ना की कहानी सुनाता हु ,
आओ सभी बैठ जाओ आराम से ,
मैं फिर बताता हु ।
खेलता था साथ मेरे ,
जबसे मैंने होश संभाला था ,
कभी वो फेकता गेंद ,
कभी मैंने विकेट उखड़ा था ।
कभी आता वो मेरे घर ,
कभी मैं उसके घर जाता था ,
कभी वो मुस्कुराता मेरी खुशियों से ,
कभी मेरे गम से रो जाता था ।
बचपन के इस दौर में,
मैं तो अब भी छोटा बच्चा था ,
पर मुन्ना पता नहीं क्यों ,
अब अक्सर चुप चुप सा रहता था ।
नहीं रोक पाया खुद को ,
घर उसके जाने से ,
था तो घर उसका ही ,
पर लग रहे थे मौजूद चहरे ,
आज थोड़े अंजाने से ।
हैरना हुआ मैं थोड़ा ,
पर कहां कुछ समझ पाता ,
छोटे बच्चे को ,
क्या ही समझ आता ।
दिन बदला और बदले साल ,
फिर एक रोज पहुंच गया ,
जानने उसका हाल ,
तब जा कर देखा मैंने वक्त का कमाल ।
मुन्ना , मुनिया और उसकी मां ,
सब बदल से गए थे ,
उम्र से बड़े ना जाने क्यों ,
वो तीनों लग रहे थे ।
देख मुझे मुन्ना थोड़ा घबराया ,
तभी पीछे से किसी ने आवाज लगाया ,
क्या भाई कितना दोगे ,
कौन सा वाला खिलौना लोगे ?
मैंने झट से पीछे पलट कर देखा ,
कर दिया था जिन चेहरों को अनदेखा ,
वो सब मुझे पहचानते थे ,
शायद मुझे मेरे ही घर में ,
खिलौनों का ग्राहक मानते थे ।
वो घर जहां ,
बेमोल खुशियां थी कभी ,
आज वहा खुशियों के ,
दाम लग रहे थे,
होती थी खूबसूरत मां जहां ,
वहा बच्चे रो रहे थे ।
हां मुन्ना अब व्यापारी बन चुका था ,
अपनो का ही सौदा करने लगा था ,
देख जिसे मैं थोड़ा घबराया ,
पर कुछ भी समझ नहीं आया ।
आखिर क्यों , कैसे , कब ,
इतना क्या हो गया था ,
मेरा मुन्ना कैसे ,
इतना बदल गया था ।
सब कुछ थम सा गया था ,
मानों गुजरता पल ,
अब रुकने लगा था ,
तभी फिर एक आवाज आई ,
और बता यहां कैसे मेरे भाई ।
सुना था तेरी शादी हो गई ,
बुलाया भी नहीं ,
गैरों से पड़ा मालूम मुझे ,
तूने तो बताया भी नहीं ।
मैंने कहा मुझे लगा तू ,
अब इस शहर में नहीं होगा ,
शायद बदलते दौर और आदत में ,
तूने घर भी बदल लिया होगा ।
वो थोड़ा मुस्कुराया ,
और झट से बोला ..
खैर बता कौन सा खिलौना लेगा ,
चलेगा अगर थोड़ा कम भी देगा ,
बस मुफ्त में कुछ नहीं दूंगा ,
कुछ ना कुछ ही सही पर दाम लूंगा ।
चल मेरे साथ ,
थामा उसने मेरा हाथ ,
आ तुझे खिलौने दिखता हूं ,
और दाम बताता हु ।
मैं कुछ भी कहता की तभी ,
एक और झटके ने मुझे झकझोर दिया ,
मुनिया ने आकर ,
जब पूछे से मेरा हाथ मोड़ दिया ।
अरे बाबू तुम तो बहुत ,
चिकने लगते हो ,
पहली बार आए हो क्या ,
इतना चुप चुप क्यों रहते हो ।
वो हाथ कभी जो राखी बांधते थे ,
आज फिर हाथ फैलाए बैठे थे ,
इस दफा खिलौना देकर ,
दाम लेने को कह रहे थे ।
वो पल काश ज़िंदगी का ,
मेरे आखिरी होता ,
जिस पल मुनिया को ,
मैंने खिलौना बनते देखा ।
पर नहीं अभी तो ये ,
महज़ एक शुरुआत थी ,
होनी बहुत सी अनहोनी ,
इसके बाद थी ।
मैंने कहा नहीं नहीं ,
तुमने शायद पहचाना नहीं ,
पगली मैं राहुल हूं ।
वो बोली तो ?
जब मेरा अपना खून ,
करता मेरा सौदा है ,
तुम तो गैर हो बाबू ,
बताओ कितने का करना सौदा है ।
मैं सुदभुद खो कर ,
एक नजर से ,
उसको देखे जा रहा था ,
की तभी मुझसे फिर बोली मुनिया ,
बोलो लेना है खिलौना तो लो ,
वरना बाबू यहां ,
बातों का भी दाम चढ़ता है ।
मुन्ना जोर से मुस्कुराया ,
क्या यार तू अब तक नहीं समझ पाया ,
चल तुझे किसी से मिलवाता हूं ,
तेरे लिए सबसे तजुर्बे वाला खिलौना लाता हु ।
एक छोटा सा कमरा ,
बिस्तर पर सिकुड़ा चादर ,
गीला तकिया ,
और
जलता सिगार लिए ,
बैठी एक अर्धनग्न लाश थी ।
अरे यो तो वही कोख है ,
जिसने मुन्ना को पाला था ,
मुनियां को नौ महीने संभाला था ।
हे ईश्वर ये मुझे क्या दिखा रहे हो ,
क्रूरता के किसी हद तक जा रहे हो ,
खिलौने का सौदा भी ,
किससे करवा रहे हो ।
बस कर मुन्ना अब नहीं देखा जाता ,
जाने दे मुझे यहां से ,
कोई खिलौना समझ नहीं आता ।
हां तो जा किसने तुझे रोका है ,
समझ रहा जिसे तू मां और मुनिया ,
तेरी आंखों का वो धोखा है ।
मैं तो खिलौने बेचता हूं ,
बेहतर दाम लगा कर ,
आज जाना कभी खरीदना हो ,
थोड़ा जाम लगा कर ।
मेरे आंखो से आंसू नहीं ,
रक्त बहने लगे था ,
मैं मौजूद था वहां ,
पर मस्तिष्क में अनगिनत सवाल उठ रहे थे ।
लौटने लगा जब आखिरी बार उस चौखट से ,
सब कुछ फिर जिंदा हो उठा था ,
वो यादें वो बाते वो पल ,
मानों मैं फांसी पर चढ़ रहा था ।
ये मंजर आज भी मेरी जिंदगी में ,
उतना ही ताज़ा है ,
कर के सौदा किसी अपने का ,
जितना बन बैठा वो अभागा है II
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